Sunday 7 September 2014

खाद्यान्न सुरक्षा



खाद्यान्न सुरक्षा हो सर्वोपरि
Saturday,Jul 26,2014

भारत ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा चिंता के मद्देनजर डब्ल्यूटीओ द्वारा प्रस्तावित व्यापार सरलीकरण समझौते को स्वीकार करने अथवा इस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया है। भारत चाहता है कि मौजूदा नियमों में सुधार किया जाए, क्योंकि इसके कारण खाद्यान्नों की खरीद का काम असंभव हो जाएगा। वाणिज्य राच्यमंत्री निर्मला सीतारमन ने इस बात से अवगत कराया है कि इस समझौते से लाखों छोटे किसानों के हितों को नुकसान पहुंचेगा। यदि भारत अपने रुख पर कायम रहता है तो डब्ल्यूटीओ के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब किसी समझौते के क्त्रियान्वयन को रोकना पड़ेगा। अपने स्थापना काल से ही डब्ल्यूटीओ किसी भी समझौते को क्त्रियान्वित करने के लिए सर्वानुमति से काम करता रहा है। भारत के लगातार विरोध के कारण व्यापार सरलीकरण समझौता खतरे में पड़ गया है। इस पर हस्ताक्षर करने की अंतिम तिथि 31 जुलाई है। विकसित देश व्यापार सरलीकरण समझौते को शीघ्र लागू करने के पक्ष में हैं, क्योंकि इससे उन्हें विकासशील देशों के बाजार तक पहुंच बढ़ाने के अधिक अवसर मिलेंगे। इससे सीमा संबंधी अड़चनें दूर होंगी और आयात अधिक आसान होगा। हालांकि भारत ने साफ कर दिया है कि राच्य की तरफ से गरीबों के लिए चलाए जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर समझौता नहीं किया जा सकता। मुझे नहीं लगता कि डब्ल्यूटीओ के व्यापार सरलीकरण समझौते में देरी के लिए राजनीतिक उत्साह को दोष दिया जा सकता है। यदि डब्ल्यूटीओ ने भारत की खाद्य सुरक्षा चिंताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया होता तो यह मामला हल हो सकता था। यह कोई पहली बार नहीं है जब भारत ने खाद्यान्न सुरक्षा मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करने की बात कही हो। दिसंबर 2013 में बाली में हुए डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में तत्कालीन वाणिच्य मंत्री आनंद शर्मा ने भी यही बात कही थी, लेकिन यह सब अंतिम समय में हुआ था। परिणामस्वरूप उन्हें जो हासिल हुआ वह यही कि अगले चार वषरें तक खाद्यान्न सब्सिडी जारी रखी जा सकेगी। मुझे संदेह है कि खाद्यान्न सुरक्षा के मुद्दे पर स्थायी समाधान के बिना भारत किसी भी कूटनीतिक दबाव में आएगा और व्यापार सरलीकरण समझौते को स्वीकार करेगा। इसके उलट मैंने यही पाया है कि डब्ल्यूटीओ में भारत ने स्वत: ही आयात को सरल किए जाने के संबंध में कदम बढ़ाए हैं। 2014 के बजट में वित्ता मंत्री अरुण जेटली ने आयातकों के लिए सीमा शुल्क संबंधी प्रावधान की दिशा में एकल खिड़की सुविधा का प्रस्ताव दिया है और पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने की दिशा में 16 नई बंदरगाह परियोजनाओं की घोषणा की है। इसके अतिरिक्त तूतीकोरिन बंदरगाह परियोजना के विकास कार्य के लिए 11,635 करोड़ रुपये दिए हैं। व्यापार कूटनीति को समझने वालों को पता है कि व्यापार सरलीकरण के निर्णयों पर क्त्रियान्वयन को धीमा करने का सबसे अच्छा तरीका दबाव बढ़ाना है। हालांकि भारत की ऐसी कोई इच्छा नहीं है। जब मामला खाद्यान्न सुरक्षा का होता है तो सबसे बड़ी समस्या लोकहित में खाद्यान्न संग्रहण पर किए जाने वाले खर्च की राशि में बढ़ोतरी का आता है। इसके कारण छोटे किसानों से खरीदे जाने वाले गेहूं और चावल की निर्धारित कीमतों में इजाफा होता है। कृषि पर डब्ल्यूटीओ समझौते के प्रावधान के तहत प्रशासित अथवा नियंत्रित कीमत कुल उपज की 10 फीसद की अधिकतम सीमा को पार नहीं कर सकती। चावल के मामले में भारत यह सीमा पहले ही पार कर चुका है, जहां खरीद मूल्य आधार वर्ष 1986-88 के मानक पर 24 फीसद से अधिक पहुंच चुका है। तमाम हो-हल्ले के बावजूद भारत डब्ल्यूटीओ में कहता आ रहा है कि वह अपनी खाद्यान्न सुरक्षा चिंताओं पर समझौता नहीं करेगा। यदि ऐसा कुछ होता है तो भारत को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को खत्म करना होगा और साथ ही जरूरतमंद और भूखे लोगों के लिए खाद्य वितरण के मामले में आधिपत्य रखने वाली भारतीय खाद्य निगम की भूमिका सीमित अथवा खत्म हो जाएगी। मूल्य निर्धारण और सब्सिडी से पीछे हटने के बजाय राजग सरकार ने गरीब अथवा जरूरतमंद लोगों के लिए अधिकाधिक खाद्यान्नों की खरीदारी को कम करने का निर्णय लिया है। इसके अलावा राच्य सरकारों को किसानों की दी जाने वाली नकदी प्रोत्साहन राशि नहीं देने को कहा है, क्योंकि इससे बाजार प्रभावित होता है। भारत अपने कृषि क्षेत्र को स्वायत्ता बनाने के लिए इसका उदारीकरण कर रहा है और खाद्यान्न सब्सिडी के स्थान पर डब्ल्यूटीओ के नियमों को अपना रहा है। वर्तमान खरीफ मौसम में खाद्यान्न महंगाई को बहाना बनाते हुए सरकार ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 रुपये प्रति कुंतल बढ़ा दिया है। यह बिल्कुल वही है जो डब्ल्यूटीओ चाहता है। बाद में इसे वैधानिक स्वरूप देने के लिए 2014 के आर्थिक सर्वेक्षण में राष्ट्रीय बाजार को बनाने की बात कही गई है, जो कि कृषि उत्पाद बाजार समिति अथवा एपीएमसी की सीमाओं को लांघता है। दूसरे शब्दों में एक बार जब एपीएमसी मंडियां अनावश्यक हो जाएंगी तो खरीदारी मूल्य स्वत: ही निष्प्रभावी हो जाएगा। कुल 24 कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, लेकिन केवल गेहूं और चावल के लिए किसानों को सरकारी खरीद मूल्य की दर पर भुगतान किया जाता है और यह काम भारतीय खाद्य निगम द्वारा किया जाता है। शेष अन्य फसलों के लिए, जिनकी खरीदारी मंडियों के लिए नहीं की जाती, उनका न्यूनतम समर्थन मूल्य महज अनुमानित कीमत होती है। यही कारण है कि एपीएमसी मंडियां इनके खरीदारी मूल्य से दूरी रखती हैं और डब्ल्यूटीओ भी यही चाहता है। समय के साथ एपीएमसी मंडियां खत्म कर दी जाएंगी और सरकार नहीं चाहती कि मनमाने ढंग से खरीदारी मूल्यों में बढ़ोतरी हो और डब्ल्यूटीओ प्रावधानों का उल्लंघन हो। खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने केंद्र द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों का पालन करने के लिए राच्यों से पूछा है और किसानों को नकदी बोनस नहीं देने के लिए कहा है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में गेहूं के लिए किसानों को 150 रुपये प्रति कुंतल बोनस दिया जा रहा है। यदि राच्य भारतीय खाद्य निगम की शतरें का उल्लंघन करते हैं तो आपात परिस्थितियों और पीडीएस के लिए जरूरी खाद्यान्न का संग्रहण संभव नहीं होगा। पिछले कुछ वषरें से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री मूल्य वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए किसानों को दोष देते रहे हैं। आम धारणा है कि मूल्यों में बढ़ोतरी के कारण ऐसा हुआ है। आरबीआइ के मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य में 10 फीसद की बढ़ोतरी से अल्पकालिक तौर पर थोक मूल्य में एक फीसद की बढ़ोतरी होती है। अमेरिका में भी यही कहा जाता है। 14 देशों के कृषि निर्यात संघ ने भी इस पर चिंता जताई है और कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को खत्म किया जाए ताकि उनके व्यापारिक हितों का संरक्षण हो। डब्ल्यूटीओ का भी यही निर्देश है। यह समय ही बताएगा कि भारत इसे कितना स्वीकार करता है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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खाद्यान्न सुरक्षा और वैश्विक विसंगतियां
धर्मेंद्रपाल सिंह

 जनसत्ता 28 अगस्त, 2014 : अपने खाद्य सुरक्षा अधिकार की रक्षा के लिए भारत के कड़े रुख के कारण विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के आका अमीर देश भले नाराज हों,
लेकिन अब हमारे समर्थन में कुछ देश और संगठन खुल कर सामने आए हैं। पहले पड़ोसी चीन ने समर्थन दिया और अब संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट (आइएफएडी) के अध्यक्ष ने भारत के पक्ष में पैरवी की है। आइएफएडी अध्यक्ष के अनुसार किसी भी राष्ट्र के लिए अन्य देशों में रोजगार के अवसर सृजित करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है। भारत भी यही चाहता है। जिनेवा में जब डब्ल्यूटीओ वार्ता फिर शुरू होगी तब निश्चय ही चीन और आइएफएडी के समर्थन से भारत को अपना पक्ष मनवाने में मदद मिलेगी। भारत के लिए खाद्य सुरक्षा कानून कितना जरूरी है, यह जानने के लिए विश्व भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर दृष्टि डालना जरूरी है। इसके अनुसार भूख के मोर्चे पर जिन उन्नीस देशों की स्थिति अब भी चिंताजनक है उनमें भारत एक है। रिपोर्ट में कुपोषण की शिकार आबादी, पांच साल से कम आयु के औसत वजन से कम बच्चों की संख्या और बाल मृत्यु दर (पांच साल से कम आयु) के आधार पर दुनिया के एक सौ बीस देशों का ‘हंगर इंडेक्स’ तैयार किया गया और जो देश बीस से 29.9 अंक के बीच में आए उनकी स्थिति चिंताजनक मानी गई है। भारत 21.3 अंक के साथ पड़ोसी पाकिस्तान (19.3), बांग्लादेश (19.4) और चीन (5.5) से भी पीछे है। शिक्षा के अभाव, बढ़ती सामाजिक-आर्थिक खाई और महिलाओं की बदतर स्थिति के कारण भारत में विशाल कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) आबादी है। 
इसीलिए भारत ने डब्ल्यूटीओ की जिनेवा बैठक में कड़ा रुख अपनाया, जिससे अमेरिका, यूरोपीय देश और आस्ट्रेलिया बिलबिलाए हुए हैं। भारत ने बैठक में साफ कर दिया कि जब तक उसे अपनी गरीब जनता की खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलेगी तब तक वह व्यापार संवर्धन समझौते (टीएफए) को लागू नहीं होने देगा। मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया था, जो देश की लगभग अस्सी करोड़ आबादी को सस्ता अनाज मुहैया करने की गारंटी देता है। इस कानून के अंतर्गत जरूरतमंद लोगों को तीन रुपए किलो की दर पर चावल, दो रुपए किलो गेहंू और एक रुपया किलो के हिसाब से मोटे अनाज (बाजरा, ज्वार आदि ) प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है। नया कानून लागू हो जाने पर सरकार को करोड़ों रुपए की सबसिडी देनी पड़ रही है। इस साल के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिए एक सौ पचास लाख करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। डब्ल्यूटीओ के कृषि करार (एओए) के अनुसार किसी भी देश का सबसिडी बिल उसकी कुल कृषि पैदावार का दस प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। पिछले साल बाली (इंडोनेशिया) की डब्ल्यूटीओ बैठक में भारत ने जब इस दस फीसद पाबंदी का प्रबल विरोध किया तो उसे चार साल तक की छूट दे दी गई। छूट के बदले अमीर देशों ने इस वर्ष 31 जुलाई से टीएफए लागू करने की शर्त रखी थी। टीएफए पर अमल का सबसे ज्यादा लाभ अमीर देशों को होगा, इसलिए वे इसे जल्दी से जल्दी लागू कराना चाहते हैं। भारत की मांग है कि टीएफए लागू करने से पहले कृषि सबसिडी विवाद का स्थायी हल खोजा जाना चाहिए। उसे डर है कि टीएफए लागू हो जाने से उसके हाथ बंध जाएंगे। चार साल की छूट खत्म हो जाने के बाद अमीर देश दस फीसद खाद्य सबसिडी की शर्त उस पर थोप देंगे। दुनिया में आज दो तरह की खाद्यान्न सबसिडी चालू है। पहली सबसिडी किसानों को दी जाती है। यह सरकार द्वारा सस्ता उर्वरक और बिजली-पानी मुहैया कराने और न्यूनतम फसल खरीद मूल्य तय करने के रूप में दी जाती है। दूसरी सबसिडी उपभोक्ताओं को मिलती है। राशन की दुकानों से मिलने वाला सस्ता गेहूं-चावल इस श्रेणी में आता है। भारत में दोनों तरह की सबसिडी दी जा रही है और उसका सबसिडी बिल कुल खाद्यान्न उपज के दस प्रतिशत से अधिक है। डब्ल्यूटीओ समझौते के अनुसार अगर कोई देश करार का उल्लंघन करता है तो उसे अपना खाद्यान्न भंडार अंतरराष्ट्रीय निगरानी में लाना पड़ेगा। प्रतिबंधों की मार झेलनी पड़ेगी, सो अलग। भारत ऐसे इकतरफा नियमों का विरोध कर रहा है। 
डब्ल्यूटीओ का कोई भी समझौता सदस्य देशों की सर्वानुमति से लागू हो सकता है। विकसित देश भारत पर आरोप लगा रहे हैं कि विश्व व्यापार के सरलीकरण के लिए जरूरी टीएफए की राह में वह रोड़े अटका रहा है। भारत के नकारात्मक रवैए के कारण उनके निर्यात को भारी नुकसान पहुंचेगा। उनका मानना है कि टीएफए लागू हो जाने से विश्व व्यापार में दस खरब डॉलर की वृद्धि होगी और 2.1 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा। सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय देश अभी तक मंदी की मार से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। अपना माल बेचने के लिए उन्हें भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे विकासशील देशों के विशाल बाजार की दरकार है। टीएफए लागू हो जाने से करों की दरें कम होंगी और खर्चे घटेंगे। इससे दुनिया की मंडियों में उनका माल कम कीमत पर मिलेगा। भारत और उसके समर्थक विकासशील देशों का मत है कि बड़े देशों को रास आने वाले टीएफए पर अमल से पहले उन्हें अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। हिंदुस्तान पर बाली में बनी सहमति से पलट जाने का आरोप लगाने वाले अमीर देश यह भूल जाते हैं कि अपना हित साधने के लिए उन्होंने 2005-2006, 2008-2009 और 2013 में कैसे-कैसे अड़ंगे लगाए थे। विश्व बिरादरी की भावनाओं की उपेक्षा कर अमेरिका आज भी अपने किसानों को हर साल बीस अरब डॉलर (बारह खरब रुपए) की सबसिडी देता है और इसी के बूते खाद्यान्न निर्यात कर पाता है। आंकड़े गवाह हैं कि देश की 17.5 फीसद आबादी कुपोषण की शिकार है और चालीस प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। बाल मृत्यु दर भी 6.1 फीसद है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर कोई सरकार ‘इंक्लूसिव ग्रोथ’ मॉडल को ईमानदारी से अपनाए तो विकास दर में जितने फीसद वृद्धि होगी उसकी आधी दर से कुपोषण में कमी आएगी। उदाहरण के लिए, अगर विकास दर में चार प्रतिशत के हिसाब से बढ़ोतरी होती है तो कुपोषण दो प्रतिशत के हिसाब से कम होना चाहिए। हमारे देश में 1990-2005 के बीच औसत विकास दर 4.2 प्रतिशत रही, लेकिन इस दौरान कुपोषण में कमी आई महज 0.65 फीसद। इसका अर्थ यही है कि खुली अर्थव्यवस्था अपनाने का लाभ गरीब और कमजोर वर्ग को न के बराबर मिला है। आज जहां एक ओर करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी नसीब नहीं है, वहीं दूसरी तरफ बेवजह खाकर मोटे हो रहे लोगों का बढ़ता आंकड़ा देश और दुनिया में गरीबों-अमीरों के बीच चौड़ी होती खाई को उजागर करता है। फिलहाल पूरी दुनिया में कुपोषण के शिकार अस्सी करोड़ लोग हैं, जबकि मोटापे की शिकार आबादी एक अरब है। भारत में भी संपन्न तबके में वजन बढ़ने का चलन एक महामारी बन चुका है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न की भरपूर पैदावार होने से पिछले साल गेहूं के मूल्य में सोलह प्रतिशत, चावल में तेईस प्रतिशत और मक्का में पैंतीस प्रतिशत कमी आई थी। तब मानसून की मेहरबानी से भारत में भी खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब देश और दुनिया में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है फिर कुपोषण की शिकार आबादी कम क्यों नहीं हो रही? हाल ही में आई पुस्तक ‘फीडिंग इंडिया: लाइवलीहुड, एंटाइटेलमेंट ऐंड कैपैबिलिट’ में इसका उत्तर खोजा जा सकता है। पुस्तक के लेखकों के अनुसार समस्या पैदावार की नहीं, बल्कि पैदावार जरूरतमंदों तक पहुंचाने से जुड़ी है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक के पैमाने पर इसे कस कर देखने से भी कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। न्यूनतम खरीद मूल्य के तहत सरकार को गेहूं की कीमत औसत चौदह रुपए प्रति किलो पड़ती है। इसमें परिवहन, मंडी कर, भंडारण, अनाज बोरों में भरने, कमीशन, प्रशासनिक खर्च और ब्याज को जोड़ दिया जाए तो लागत लगभग दोगुना हो जाती है। सरकार के अनुसार भ्रष्टाचार और कालाबाजारी के कारण राशन का तीस से चालीस प्रतिशत अनाज जनता तक पहुंच ही नहीं पाता है। अगर इस चोरी को भी जोड़ दिया जाए तो लागत आंकड़ा और ऊपर हो जाएगा। घोर गरीबी के कारण देश की लगभग एक चौथाई जनता बीमारी, बेरोजगारी और अकाल का मामूली-सा झटका झेलने की स्थिति में भी नहीं है। समस्त सरकारी दावों के बावजूद करोड़ों गरीबोें को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा नहीं जा सका है। दूसरी तरफ देश में अरबपतियों की संख्या में लगातार हुआ इजाफा हमारे नीति निर्माताओं की पोल खोलता है। ग्लोबल वैल्थ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी छियासठ हजार अरबपति हैं और 2018 आते-आते उनकी संख्या बढ़ कर 3.02 लाख हो जाएगी। देश में अरबपतियों की संख्या में इजाफे की रफ्तार छियासठ प्रतिशत है, जो अमेरिका (41 प्रतिशत), फ्रांस (46 प्रतिशत), जर्मनी (46 प्रतिशत), ब्रिटेन (55 प्रतिशत) और आस्ट्रेलिया (48 प्रतिशत) से भी अधिक है। डब्ल्यूटीओ को लगता है कि भारत के खाद्य सुरक्षा कानून से दुनिया के अनाज बाजार में अस्थिरता आएगी और अंतत: खाद्यान्न की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होगा। सवा अरब की आबादी का पेट भरने के लिए भारत को भारी मात्रा में गेहंू-चावल और अन्य खाद्यान्न की आवश्यकता है। फिलहाल खाद्यान्न के मोर्चे पर देश आत्मनिर्भर है, लेकिन भविष्य में सूखे या बाढ़ से अगर पैदावार घट गई तो भारत को भारी मात्रा में गेहूं-चावल आयात करना पड़ेगा। निश्चय ही तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें आसमान छूने लगेंगी। लेकिन इस लचर तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी भी देश की सरकार की पहली जिम्मेदारी अपनी जनता के प्रति होती है और जनता के भोजन का इंतजाम करना उसका उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्व पर सवाल उठाने का अधिकार किसी देश या अंतरराष्ट्रीय संगठन को नहीं दिया जा सकता। भारत का मानना है कि डब्ल्यूटीओ के अधिकतर नियम खुली अर्थव्यवस्था के पैरोकार विकसित देशों के हित में हैं। अपने बाजार को विस्तार देने के लिए वे दुनिया के गरीब मुल्कों को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। लेकिन कोई भी विकासशील या गरीब देश अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। भारत ने बलि का बकरा बनने से इनकार कर बहुत अच्छा काम किया है। 

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