Sunday 7 September 2014

जीएम फसल



जीएम फसलों का सच   

  Thu, 13 Feb 2014

प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह ने यह कहकर राष्ट्रीय बहस तेज कर दी है कि जैव संव‌िर्द्धत (जीएम) फसलों के खिलाफ अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होना गलत है। जम्मू में 101वीं इंडियन साइंस कांग्रेस को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जैव प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की प्रचुर संभावना है और उनकी सरकार कृषि विकास के लिए इन नई तकनीकों को प्रोत्साहन देने के प्रति वचनबद्ध है। विवादास्पद जीएम प्रौद्योगिकी की तारीफ में प्रधानमंत्री का बयान चौंकाता नहीं है। जयराम रमेश और जयंती नटराजन को जीएम फसलों के विरोध के कारण पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया है। जयराम रमेश ने बीटी बैगन पर शोध को स्थगित कर दिया था। अगर इसकी अनुमति दे दी जाती तो इससे अन्य अनेक जीएम फसलों की बाढ़ आ जाती। उनके बाद पर्यावरण मंत्रालय संभालने वाली जयंती नटराजन ने जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल की अनुमति देने की उद्योग जगत की मांग के दबाव के सामने से झुकने से मना कर दिया था।  इस क्षेत्र में बहुत कुछ दांव पर लगा है। अरबों डॉलर के इस उद्योग को जीएम फसलों को अनुमति देने से भारत के इन्कार से करारा झटका लगा है। अनेक राज्य सरकारों द्वारा जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल को अनुमति देने से इन्कार करने, कृषि पर संसद की स्थायी समिति के विरोध और सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गई टैक्नीकल एक्सपर्ट कमेटी के इन्कार के बाद अब उद्योग जगत पीछे के दरवाजे से जीएम फसलें लाने का दबाव डाल रहा है। यहां यह समझना बहुत जरूरी हो जाता है कि उद्योग जगत के तथाकथित वैज्ञानिक दावों की सच्चाई क्या है और क्या जीएम फसलें वास्तव में मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं। प्रधानमंत्री का कहना है कि जीएम प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की बड़ी संभावनाएं हैं। ऐसे ही दावे उद्योग जगत भी करता है, किंतु सच्चाई यह है कि अमेरिका में 20 साल पहले पहली जीएम फसल आने के बाद से आज तक कोई ऐसी जीएम फसल नहीं है तो पैदावार बढ़ा सकती हो। अमेरिका के कृषि विभाग के अध्ययन से पता चलता है कि जीएम मक्का और जीएम सोयाबीन की पैदावार परंपरागत प्रजातियों से भी कम है। यहां तक कि भारत में सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, नागपुर ने स्वीकार किया है कि 2004 से 2011 के बीच के नतीजों पर गौर करने से पता चलता है कि बीटी कॉटन की पैदावार में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई है। इस दलील में कोई दम नहीं है कि 2050 तक बढ़ी हुई जनसंख्या का पेट भरने के लिए अधिक पैदावार की जरूरत पड़ेगी जिसके लिए जीएम फसलों की जरूरत है। सवाल उठता है कि क्या विश्व में खाद्यान्न की कमी है? यूएसडीए के आकलन के अनुसार 2013 में विश्व में 14 अरब लोगों का पेट भरने लायक खाद्यान्न उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में विश्व में वर्तमान आबादी से दोगुनी जनसंख्या के लिए खाद्यान्न का उत्पादन किया। फिर भी अरबों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ा। असल समस्या पैदावार की कमी नहीं है, बल्कि खाद्यान्न की बर्बादी है। करीब 40 प्रतिशत खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। अकेले अमेरिका में ही 163 अरब डॉलर का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है, जो पूरे अफ्रीका की आबादी का पेट भर सकता है।  भारत में करीब 25 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। यह भुखमरी खाद्यान्न की कमी के कारण नहीं है। जून 2013 में भारत में 8.23 करोड़ टन का अतिरिक्त खाद्यान्न हुआ। इसमें से करीब दो करोड़ टन का निर्यात कर दिया गया। भंडार किए गए खाद्यान्न का खर्च घटाने के लिए दो करोड़ खाद्यान्न के निर्यात करने की योजना है। खाद्य उत्पादन बढ़ाने के बजाय कृषि मंत्रालय खाद्यान्न की सरकारी खरीद घटाने की योजना बना रहा है। जीएम फसलों से कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आने का दावा भी थोथा साबित हुआ है। वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता चा‌र्ल्स बेंबरुक ने 1996 से 2011 के बीच के अध्ययन से पता लगाया कि अमेरिकी किसानों ने करीब पांच करोड़ लीटर रासायनिक कीटनाशकों का अतिरिक्त इस्तेमाल किया। 2012 में जीएम किसानों द्वारा औसतन 20 प्रतिशत अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया। नई किस्म की जीएम फसलों के आने के बाद अब यह आंकड़ा 25 प्रतिशत पर पहुंचने की संभावना है। इन नई किस्म की जीएम फसलों में खतरनाक कीटनाशकों के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है। इसी प्रकार, अजर्ेंटीना, ब्राजील और चीन में भी जीएम फसलों के कारण कीटनाशकों का इस्तेमाल घटने के बजाय बढ़ गया है।  भारत में भी कहानी कुछ अलग नहीं है। भारत में भी कीटनाशकों का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। 2005 में कॉटन पर 649 करोड़ रुपये के रासायनिक कीटनाशकों को छिड़काव किया गया था। 2010 में कॉटन की खेती में 92 प्रतिशत हिस्सा बीटी कॉटन किस्मों का हो गया है। इसी के साथ कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाकर 880 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल जितना ही चिंताजनक है ऐसे कीटों का उभरना जिनका खात्मा लगभग असंभव है। इन्हें सुपर कीट कहा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अमेरिका में करीब 10 करोड़ एकड़ क्षेत्रफल सुपर कीटों से प्रभावित है। अमेरिका के राज्यों में कुछ किसान हाथों से कीटों का सफाया करने को मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि इन पर कोई कीटनाशक असरदार नहीं है। कनाडा में 10 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में सुपर कीटों का कब्जा है। अध्ययनों से पता चलता है कि जीएम फसल आने के बाद से 21 कीटों पर रासायनिक कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा। कीट-पतंगे भी जीएम फसलों के प्रति प्रतिरक्षा विकसित कर चुके हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि भारत में बॉलवर्म कीटों पर रासायनिक कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा है। जीएम फसलों से न तो पैदावार में वृद्धि हो रही है और न ही कीटनाशकों का इस्तेमाल घट रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जीएम फसलों की तरफदारी समझ से परे है। वास्तव में अब तमाम साक्ष्य औद्योगिक कृषि के युग के खात्मे की ओर संकेत कर रहे हैं। जीएम फसलों से मिट्टी विषैली होती है, भूजल का स्तर गिरता है और रासायनिक कीटनाशकों और खाद के अधिक इस्तेमाल के कारण पूरी खाद्यान्न श्रृंखला जहरीली हो जाती है। इस कारण अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।  कृषि को बचाना है तो पर्यावरण के अनुकूल खेती को अपनाना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश में करीब 35 लाख हेक्टेयर जमीन में रासायनिक कीटनाशकों के बिना ही खेती की जा रही है। करीब 20 लाख हेक्टेयर में रासायनिक खाद का भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। इसके बावजूद उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, प्रदूषण घट रहा है, मिट्टी की उर्वरता बढ़ रही है और किसानों की आय में वृद्धि हो रही है। क्या प्रधानमंत्री को खेती के इस मॉडल की वकालत नहीं करनी चाहिए थी? जब यह प्रयोग 35 लाख हेक्टेयर में सफल हो सकता है तो साढ़े तीन सौ लाख हेक्टेयर में क्यों नहीं? इसी पर भारतीय कृषि का भविष्य निर्भर टिका है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]
----------------

विवाद के बीज

Tuesday, 22 July 2014 11:44

जनसत्ता 22 जुलाई, 2014 : जीएम यानी जीन-संशोधित बीजों या फसलों को लेकर कुछ वर्षों से काफी तीखा विवाद रहा है। इसके पक्षधर जहां जीएम तकनीक से फसलों की कीटरोधी प्रजातियां विकसित होने और पैदावार बढ़ने की दलील देते रहे हैं, वहीं अनेक कृषि वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, जैव विविधता और स्वास्थ्य के मसलों पर सक्रिय संगठनों ने जीएम फसलों को लेकर लगातार आगाह किया है। आलोचकों का कहना है कि जीएम की तरफदारी में किए जाते रहे दावे अतिरंजित हैं। फिर, सेहत और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर की अनदेखी हरगिज नहीं की जा सकती। जहां वैज्ञानिक समुदाय भी बंटा हो और बड़े पैमाने पर परस्पर विरोधी आकलन हों, वहां अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं होता। ऐसे में फूंक-फूंक कर ही कदम रखा जाना चाहिए। अगर मसला पूरी कृषि प्रणाली, खाद्य सुरक्षा और लोगों की सेहत से जुड़ा हो, तो सावधानी की और भी जरूरत है। इसलिए जेनेटिक इंजीनियरिंग मंजूरी समिति ने जैसी हड़बड़ी दिखाई है उससे कई सवाल उठते हैं। पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाली इस समिति ने चावल, सरसों, कपास, बैंगन जैसी कई प्रमुख फसलों के जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण की इजाजत दे दी है। जाहिर है, इस अनुमति का मकसद इन जीएम फसलों की खेती का रास्ता साफ करना है। समिति के इस फैसले पर और बहुत-से लोगों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच ने भी सवाल उठाए हैं। बीते शनिवार को जारी एक बयान में मंच ने इसे देश की जनता के साथ धोखा करार दिया है। लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भाजपा ने कहा था कि जमीन की उर्वरा-शक्ति और लोगों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के दीर्घकालीन असर का सर्वांगीण वैज्ञानिक आकलन किए बगैर ऐसे बीजों की बाबत कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। फिर इतने ही दिनों में दीर्घकालीन असर का पता कैसे लगा लिया गया कि पर्यावरण मंत्रालय की समिति ने जमीनी प्रयोग शुरू करने के लिए हरी झंडी दे दी? अगस्त 2012 में कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने पूरी तरह जीएम फसलों के खिलाफ अपनी रिपोर्ट दी थी; इस समिति में भाजपा के सदस्य भी शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित विशेषज्ञ समिति ने भी इसी तरह की राय दी थी। उसने सर्वोच्च अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसलों पर तब तक रोक रहनी चाहिए, जब तक इस मसले पर एक स्वतंत्र नियामक प्राधिकरण का गठन नहीं हो जाता। जेनेटिक इंजीनियरिंग मंजूरी समिति को संसदीय समिति की सिफारिश और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ समिति की राय न मालूम रही हो, यह नहीं माना जा सकता। फिर, उसने इस सब की अनदेखी कैसे कर दी? पर्यावरण मंत्रालय भाजपा के घोषणापत्र में दिए गए आश्वासन से भी क्यों मुकर गया? इस सब से यह संदेह पैदा होता है कि कहीं जीएम लॉबी को खुश करने की मंशा या इसका दबाव रहा होगा। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को उस चीज की फिक्र नहीं है, जिसके वे मंत्री हैं। उद्योग-हितैषी दिखने के उत्साह में उनके मंत्रालय ने थोड़े ही दिनों में कई पर्यावरण-विरोधी फैसले किए हैं। केवल पैदावार बढ़ने के तर्क पर जीएम बीजों को नहीं अपनाया जा सकता, क्योंकि खाद्य का मतलब केवल किसी तरह पेट भरना नहीं होता, यह भी होता है कि वह सेहत के लिए मुफीद हो। फिर, खाद्य सुरक्षा की दलील देकर जीएम बीजों की वकालत करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हर साल देश में कितना अनाज, सब्जियां और फल बर्बाद हो जाते हैं। पहले इस बर्बादी को रोकने का जतन क्यों नहीं किया जाता! 

No comments:

Post a Comment