Sunday 7 September 2014

कृषि की बदहाली



त्रासदी की शिकार कृषि
Mon, 25 Aug 2014 

कुछ वर्ष पहले पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कर्नाटक के गुलबर्गा में एक समारोह के दौरान छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें डॉक्टर, इंजीनियर, नौकरशाह, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और उद्योगपति बनने के लिए कठिन परिश्रम करना चाहिए और खुद को शिक्षित करना चाहिए। जब उन्होंने अपनी बात खत्म की तो एक युवा छात्र खड़ा हुआ और पूछा कि उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि हमें किसान भी बनना चाहिए? अब्दुल कलाम निरुत्तार थे। उन्होंने घुमा-फिराकर उत्तार देने की कोशिश की, लेकिन वास्तव में उस युवा छात्र ने उन्हें शब्दहीन कर दिया। इससे किसान और किसानी के प्रति पूर्वाग्रह का पता चलता है। यह घटना मुझे तब याद आई जब मैं अमेरिका में एक किसान द्वारा लिखे लेख को पढ़ रहा था। अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स में एक किसान ब्रेन स्मिथ ने लिखा कि खाद्य आंदोलन का एक छिपा पहलू यह है कि छोटे स्तर के किसानों के बारे में भले ही बहुत कुछ किया जाता हो, लेकिन सच्चाई यही है कि वे जीवन निर्वाह भी नहीं कर पा रहे हैं।
अमेरिका में तकरीबन 91 फीसद किसान परिवार आय के अन्य स्नोतों पर निर्भर हैं। उत्तारी अमेरिका में कोई भी किसान अपने बच्चों को किसान नहीं बनाना चाहता। यह उस देश में हो रहा है जहां किसान बिल 2014 में आगामी 10 वषरें के लिए कृषि को मदद देने के लिए 962 अरब डॉलर की केंद्रीय सब्सिडी का प्रावधान बनाया गया है। यूरोप में भी स्थिति उतनी ही चिंताजनक है। यूरोप के कुल वार्षिक बजट का 40 फीसद कृषि क्षेत्र के लिए निर्धारित होने के बावजूद वहां प्रति मिनट एक किसान कृषि कार्य को छोड़ रहा है। कनाडा में नेशनल फार्मर्स यूनियन के एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां कृषि व्यवसाय से जुड़ी 70 कंपनियों का मुनाफा जहां बढ़ा है वहीं खाद्य श्रृंखला से जुड़े किसानों के वर्ग को घाटा उठाना पड़ रहा है। अमेरिका और यूरोप में 80 फीसद कृषि सब्सिडी वास्तव में कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनियों को जा रही है। वहां किसान एक खत्म हो रही नस्ल बन गए हैं। एक पत्रिका में मैक्स कुटनेर लिखते हैं कि दशकों से समूचे अमेरिका में किसान मर रहे हैं। किसानों में आत्महत्या की दर सामान्य आबादी की तुलना में कहीं बहुत अधिक है। हालांकि वास्तविक संख्या का निर्धारण मुश्किल है। मुख्यत: इसलिए, क्योंकि किसानों को लेकर गलत रिपोर्टिंग की जाती है। वहां किसानों की परिभाषा भी अस्पष्ट है। यह सही है कि अमेरिका में जो कुछ हो रहा है वह वैश्रि्वक रूप से कोई अलग घटना नहीं है। जब कुछ सप्ताह पूर्व मैंने मीडिया द्वारा यह बताया था कि चीन में पिछले दशक में प्रति वर्ष ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले औसतन 2,80,000 लोग आत्महत्या कर रहे हैं तो पूरा राष्ट्र चकित रह गया था। इससे चिंतित तमाम लोगों ने इस बारे में जानना चाहा कि आखिर चीनी किसानों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? ताजा रिपोर्ट बताती है कि चीन में अपनी जान ले रहे ग्रामीण इलाकों के 80 फीसद लोग वह हैं जो भूमि अधिग्रहण का शिकार हुए हैं। भारत में 1995 से अब तक तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है।
कुछ राज्य इन घटनाओं को छिपाने-दबाने की कोशिश करते हैं और ऐसी मौतों को दूसरी श्रेणियों में हुई मौत से जोड़कर दिखाते हैं। समान कृषि नीति के तहत बड़े पैमाने पर सब्सिडी देने वाले यूरोप में भी मौतों की श्रृंखला रुकने का नाम नहीं ले रही। फ्रांस में एक वर्ष में 500 किसानों के आत्महत्या करने की रिपोर्ट आई है तो आयरलैंड, ब्रिटेन, रूस और आस्ट्रेलिया में किसान मरने को विवश हो रहे हैं। हालांकि भारत में हम यही कहते हैं कि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। हमारी आबादी के 52 फीसद लोगों को रोजगार देने वाले कृषि का हिस्सा देश की कुल जीडीपी में लगातार घट रहा है। मैं लंबे समय से कहता आया हूं कि छोटे किसानों को अपना चूल्हा जलाए रखने अथवा रोटी खाने के लिए बहुस्तरीय रोजगार मिलना चाहिए। भारतीय कृषि की हालत भी दयनीय है। इस बारे में कुछ अध्ययन बताते हैं कि तकरीबन 58 फीसद किसान मनरेगा पर निर्भर हैं, जो उन्हें वर्ष में न्यूनतम 100 दिन की रोजगार गारंटी उपलब्ध कराता है। हालांकि स्थिति अभी खराब बनी हुई है। जो लोग देश को खाना खिलाते हैं वही वास्तव में भूखे सोने को विवश हैं। प्रत्येक रात में तकरीबन 60 फीसद लोग भूखे सोते हैं। किसानों की इस त्रासदी से खराब बात कुछ और नहीं हो सकती। यह सब किसी प्राकृतिक आपदा के चलते नहीं हो रहा और न ही किसी वायरस के फैलने से है कि पूरी दुनिया में किसान मर रहे हैं अथवा आत्महत्या करने को विवश हैं। यह वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था की डिजाइन का हिस्सा है, जिस कारण किसान खेती के काम से विमुख हो रहे हैं। खाद्यान्न उत्पादन के लिए मिल रही सब्सिडी कृषि व्यवसाय में लगी कंपनियों के हाथों में जा रही है। सामान्य तौर पर माना यही जाता है कि कोई भी देश आर्थिक रूप से तभी बड़ा और विशाल हो सकता है जब कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा घटे अथवा नीचे लाया जाए।
अमेरिका की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 4 फीसद है और भारत में यह 14 फीसद से कम है। 2020 के अंत तक यह अनुपात घटकर 10 फीसद पर आ सकता है। इसका छोटे स्तर की कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। पिछले सात वषरें में 2007 से 2012 के बीच 3.2 करोड़ किसानों ने खेती को अलविदा कह दिया और वह शहरों में मध्यम स्तर के रोजगार के लिए आकर्षित हुए हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रति दिन 2500 किसान खेती छोड़ रहे हैं। दूसरे अध्ययनों के मुताबिक प्रति दिन 50 हजार लोग गांवों से कस्बों अथवा शहरों में स्थानांतरित हो रहे हैं, जिनमें किसान भी शामिल हैं। एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक 42 फीसद किसान दूसरे विकल्प मिलने पर खेती छोड़ना चाहते हैं। कृषि क्षेत्र में अग्रणी पंजाब राज्य में 98 फीसद ग्रामीण परिवार कर्ज में डूबे हैं। यदि पंजाब में ऐसी स्थिति है तो देश के बाकी राज्यों की हालत को समझा जा सकता है। ऐसी हालत में किसानों का मरना स्वाभाविक है। यह केवल समय की बात है कि कब एक प्रजाति के तौर पर किसानों का खात्मा होता है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं]
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नीति-नियंताओं की नाकामी  

  Sat, 01 Feb 2014

एक ऐसे समय जब राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन का बोलबाला है, जब शहर बदल रहे हैं, गांव वैसे नहीं रह गए हैं जैसे हुआ करते थे, जब कुछ पढ़े-लिखे लोगों की आमदनी बढ़ रही है और जब पिरामिड का तल यानी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को मुफ्त उपहार दिए जा रहे हैं तब भारतीय समाज का एकमात्र अंग ऐसा नजर आता है जो बदलाव की इस बयार से बिल्कुल अछूता है। यह है 60 करोड़ की आबादी वाला किसान समुदाय। जब पिछले 17 सालों में करीब तीन लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं और 65 प्रतिशत से अधिक किसान कर्ज के बोझ में दबे हैं, कृषि एक ऐसा स्थल है जहां देश की सबसे अधिक आबादी सबसे कम आमदनी के साथ रहती है। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान बराबर गिरता जा रहा है। फिलहाल यह आंकड़ा 13 प्रतिशत पर पहुंच गया है। इसका साफ मतलब है कि किसान अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। कृषि घाटे का सौदा होती जा रही है, इसलिए 60 फीसद से अधिक किसान दो जून की रोटी के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं। दूसरे शब्दों में जो लोग देश के लिए खाद्यान्न पैदा करते है वे खुद भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। 1कृषि की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसानों ने खेती से तौबा कर ली है और पेट भरने के लिए शहरों का रुख कर चुके हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार हर रोज 2,500 किसान खेती को तिलांजलि दे रहे हैं। कुछ अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि हर दिन करीब पचास हजार लोग गांवों से शहरों की ओर कूच कर जाते हैं। इनमें मुख्य तौर पर किसान ही शामिल हैं। एनएसएसओ के अनुसार यदि विकल्प मिले तो 42 प्रतिशत किसान खेती-बाड़ी को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहते हैं। जो लोग कृषि छोड़ रहे हैं, अपना घर-बार छोड़ रहे हैं और बेहतर जीवन के लिए शहर जा रहे हैं वहां वे भवन निर्माण उद्योग में मजदूरी करने या फिर रिक्शा खींचने को मजबूर होते हैं। अर्थशास्त्री और नीति निर्माता इसे आर्थिक विकास का प्रतीक बताते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के प्रमुख रघुराम राजन के शब्दों में लोगों को कृषि से बाहर निकालना ही असल विकास है। किसानों को खेती से बेदखल करके उन्हें भूमिहीन श्रमिक बना देना ही नया आर्थिक मंत्र है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत किसानों की आवश्यकता ही नहीं है और उन्हें खेती को त्याग देना चाहिए। विश्व बैंक चाहता है कि 2015 तक भारत के 40 करोड़ लोग खेती को छोड़कर शहरों में बस जाएं। इतनी बड़ी आबादी के गांवों से शहरों में स्थानांतरण का तर्क मेरी समझ में कभी नहीं आया। ये लोग गांवों में किसी तरह अपना पेट भर रहे हैं। उनके पास रोजगार की कमी हो सकती है किंतु भवन निर्माण में सस्ते श्रम के लालच में उन्हें शहरों में भेज देना तो कृषि संकट का कोई हल नहीं है। 1कृषि क्षेत्र भारत में सबसे बड़ा नियोक्ता है। कृषि को घाटे का सौदा बनाकर हम बेरोजगारी और असंतोष को बढ़ाने का काम ही कर रहे हैं। योजना आयोग के एक अन्य अध्ययन पर गौर करें। इसका निष्कर्ष है कि जब 2005-09 के बीच देश की जीडीपी 8-9 प्रतिशत के बीच मंडरा रही थी तब 1.40 करोड़ किसानों को कृषि छोड़नी पड़ी। आम तौर पर यही माना जाता है कि इन किसानों को विनिर्माण क्षेत्र में काम मिल गया होगा, किंतु हैरानी की बात है कि इस बीच विनिर्माण क्षेत्र में भी नकारात्मक विकास देखने को मिला और करीब 57 लाख लोगों को बेरोजगार होना पड़ा। ये करोड़ों बेरोजगार कहां गए? इस प्रकार के हताशाजनक परिदृश्य में लोगों को कृषि से बेदखल होने को मजबूर करना आर्थिक और राजनीतिक किसी भी रूप से समझदारी भरा कदम नहीं है। यह गरीब किसानों पर दोहरी मार है। वे अपने खेत-खलिहान को बेचकर शहरों का रुख करने को मजबूर होते हैं, किंतु जब आर्थिक वृद्धि धीमी पड़ जाती है तो उन्हें दिहाड़ी मजदूर तक का काम मिलना मुश्किल हो जाता है। मजबूरी में उन्हें वापस गांव लौटना पड़ता है और जमीन के अभाव में या तो मनरेगा के सहारे किसी तरह अपना पेट भरते हैं या फिर खेतों में मजदूरी करते हैं। क्त्रिसिल के एक अध्ययन के अनुसार 2012 और 2014 में 1.5 करोड़ किसानों के गांवों में वापस लौटने का अनुमान है, क्योंकि उन्हें शहरों में कोई काम नहीं मिला है। 1गांवों से बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन भारत की आर्थिक नीतियों की उपज है। यह बेहद चिंता का विषय है कि दिग्गज अर्थशास्त्रियों को इतने भारी जनसांख्यिकीय स्थानांतरण के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दुष्परिणामों का जरा भी अनुमान नहीं है। अनुमान के मुताबिक 2030 तक करीब 50 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। इससे निश्चित तौर पर सरकार पर शहरों में रोजगार के अधिक अवसर सृजित करने का दबाव बढ़ेगा। दुर्भाग्य से यह संभव नहीं है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि का ढांचा बेरोजगारों की वृद्धि पर आधारित है। 1यदि कोई सार्थक परिवर्तन होना है तो यह कृषि के क्षेत्र में ही संभव है, किंतु अगर आप कृषि में ठेकेदारी प्रथा और कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा देने की सोच रहे हैं तो इससे कृषि संकट का समाधान निकलने वाला नहीं है। इसके लिए अलग नुस्खे की जरूरत है जिसका जिक्त्र आर्थिक किताबों में नहीं मिलता। यह नुस्खा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने और टिकाऊ कृषि को अपनाने में निहित है। महाराष्ट्र के हिबरे बाजार गांव ने यह साबित कर दिया है कि ऐसा करना संभव है। हिबरे बाजार एक सूखाग्रस्त, विपन्न गांव को अब 60 करोड़पतियों के गांव में बदल चुका है। यह सब प्राकृतिक संसाधनों पर समुदायों के नियंत्रण से संभव हुआ। यहां जोर दीर्घकाल में कृषि को टिकाऊ और लाभप्रद बनाने पर रहा। किसानों को सुनिश्चित मासिक आय उपलब्ध कराने से आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित होगी। जैसे ही कृषि लाभप्रद हो जाएगी, किसानों से दबाव हट जाएगा। यह तभी संभव है जब भारतीय रिजर्व बैंक ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माणके लिए वृहत-आर्थिक नीतियां तैयार करे। दुर्भाग्य से यह आजकल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की नीतियों पर चल रहा है, जो गांवों से शहरों में आबादी के पलायन के पक्ष में हैं। 1अर्थव्यवस्था के उद्धार के लिए कृषि को इसका मूलाधार बनाना होगा। इसमें देश की दो-तिहाई आबादी को रोजगार देने, पर्यावरण संतुलन कायम रखने और राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की साम‌र्थ्य है। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि भविष्य हथियार वाले देशों के बजाय उन देशों का उज्जवल है जिनके पास खाद्यान्न है। हमें कृषि को बर्बाद करके देश के भविष्य को अंधकारमय नहीं बनाना चाहिए। इसी बदलाव की भारत को जरूरत है। 
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सही विचार

Wednesday,Jul 30,2014

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के स्थापना दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष यह बिल्कुल सही कहा कि किसानों को उनकी मेहनत का ऐसा फल मिलना चाहिए जिससे उनकी जेबें भी भर सकें। ऐसा तभी होगा जब कृषि प्रयोगशालाओं में विकसित तकनीक किसानों तक पहुंच सकेगी। ऐसा होने पर ही अधिक फसल उत्पादन के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इस लक्ष्य को हासिल किए बगैर काम इसलिए नहीं चलने वाला, क्योंकि उद्योगीकरण के इस दौर में कृषि योग्य जमीन बढ़ाने की गुंजाइश सीमित है। इस स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि कम समय में गुणवत्तापूर्ण फसलें विकसित की जाएं। इस दिशा में फिलहाल जो भी प्रयास हो रहे हैं वे पर्याप्त नहीं कहे जा सकते, क्योंकि हमारे देश में प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादकता बढ़ाने का लक्ष्य कई विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले पीछे है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा है। इस समस्या का निदान तभी संभव है जब अन्न के भंडारण, परिवहन और वितरण की व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। यह ठीक है कि केंद्र सरकार इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कई नए कदम उठाती हुई दिख रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि केंद्र सरकार की तरह से राज्य सरकारें भी सक्रियता का परिचय देने के लिए तैयार हैं। कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष प्रधानमंत्री ने हरित और श्वेत क्रांति का जिक्र करते हुए देश में नीली क्रांति लाने की आवश्यकता पर भी बल दिया। नीली क्रांति यानी मछली पालन के पेशे को विस्तार देने की प्रबल संभावनाएं हैं, लेकिन जिस तरह हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के क्षेत्र में अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है उसी तरह की स्थिति नीली क्रांति के संदर्भ में भी है। प्रधानमंत्री ने पानी की हर बूंद को कीमती बताते हुए जल संचयन और जल संरक्षण की जरूरत पर भी जोर दिया। इस पर पहले भी जोर दिया जाता रहा है और केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्यों के स्तर पर भी कई योजनाओं को आगे बढ़ाया गया है, लेकिन स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। इस स्थिति का मूल कारण यह है कि कृषि की हालत सुधारने के लिए जो तमाम योजनाएं शुरू की जानी हैं उन पर अमल के मामले में पर्याप्त गंभीरता का परिचय नहीं दिया जाता। नरेंद्र मोदी ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के समारोह में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और नीली क्रांति के संदर्भ में जो अनेक नए विचार रखे उनकी महत्ता तभी है जब उनके अनुरूप कार्य भी हो। यह देखना नौकरशाही का दायित्व है कि कृषि और किसानों की स्थिति में सुधार के लिए जो नीतियां और कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं उन पर सही ढंग से अमल हो। दरअसल ऐसा होने पर ही किसानों की स्थिति भी सुधरेगी और साथ ही यह भरोसा हो सकेगा कि नई सरकार नए तरीके से काम कर रही है। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ नौकरशाही के तंत्र को कृषि में सुधार से संबंधित योजनाओं का सही तरह अमल सुनिश्चित करने के साथ ही उनकी निगरानी की भी समुचित व्यवस्था करनी होगी।
[मुख्य संपादकीय]
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खेती की सुध लेगा कौन

Friday, 01 August 2014

धर्मेंद्रपाल सिंह
 जनसत्ता 1 अगस्त, 2014 : मौसम विभाग दावा कर रहा है कि वर्षा सामान्य से केवल दस प्रतिशत कम रहेगी। लेकिन बुआई का कीमती समय निकल जाने की भरपाई कैसे होगी, इसका जवाब उसके पास नहीं है। कृषि मंत्रालय ने एक जून से सत्रह जुलाई के बीच देश भर में धान, दलहन, सोयाबीन, कपास, मूंगफली आदि की बुआई का जो रकबा जारी किया है उसे देख कर लगता है कि इस बार सूखे की मार पांच बरस पहले पड़े सूखे से ज्यादा होगी। 2009 में देश ने चालीस बरस का सबसे खराब मानसून झेला था, लेकिन तब जुलाई के पहले हफ्ते से हालात सुधरने लगे थे। बारिश आ गई थी। इस बार जुलाई के दूसरे हफ्ते तक बादल रूठे रहे। आसमान ताकते-ताकते किसानों की आंखें थक गर्इं। अब जब बादल आए हैं तो काफी देरी हो चुकी है। बुआई का कीमती समय निकल चुका है। वर्षा ऋतु के आगमन में विलंब का असर कितना गहरा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। कृषि मंत्रालय के अनुसार अब तक सोयाबीन की बुआई महज बीस फीसद हो पाई है। पिछले साल इस समय तक एक करोड़ हेक्टेयर जमीन में यह फसल बोई जा चुकी थी, जबकि इस बार केवल 19.5 लाख हेक्टेयर में बुआई हुई है। इस नुकसान की भरपाई कठिन है। यों भी देरी से बुआई करने पर फसल का संभलना कठिन हो जाता है। मानसून की मार महंगाई पर जब पड़ेगी तब पड़ेगी, छोटे किसानों पर इसका असर अभी से दिखने लगा है। देश के अनेक हिस्सों में वे वैकल्पिक धंधे की खोज में गांव छोड़ने लगे हैं। गौरतलब है कि भारत में 82.2 फीसद छोटे किसान हैं, जिनकी जोत का आकार औसत 0.63 एकड़ है और देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। अब जरा खेती के प्रति सरकारी रवैए पर नजर डालें। इस साल के बजट में सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए बाईस हजार छह सौ बावन करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है, जो कुल बजट राशि का लगभग एक फीसद है। दूसरी ओर उद्योगों को 5.73 लाख करोड़ रुपए की रियायत दी गई है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-08 से 2011-12) के दौरान कृषि विकास दर 4.1 प्रतिशत रही, जिससे राष्ट्र के विकास को भारी संबल मिला। इन पांच सालों के दौरान केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को केवल एक लाख करोड़ रुपए दिए। हिसाब लगाएं तो हर वर्ष औसत बीस हजार करोड़ रुपए दिए गए। दूसरी ओर उद्योगों को 2004-05 से अब तक यानी दस साल में इकतीस लाख करोड़ रुपए की छूट दी जा चुकी है। उद्योगों पर सार्वजनिक बैंकों के लगभग दस लाख करोड़ रुपए भी बकाया हैं, जिनकी वसूली की संभावना न के बराबर है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-13 से 2017-18) में भी खेती और किसानों के प्रति सरकार के रवैए में कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। इन पांच सालों में कृषि क्षेत्र पर डेढ़ लाख करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य है, जो सालाना औसत तीस हजार करोड़ रुपए बैठता है। यह रकम जरूरत को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे जितनी है। केंद्र सरकार के इस उपेक्षापूर्ण रवैए के खिलाफ हल्ला मचने पर तर्क दिया जाता है कि कृषि तो राज्यों के अधिकार-क्षेत्र का विषय है, इसलिए पैसे का प्रावधान भी उन्हीं को करना चाहिए। इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो सवाल यह उठता है कि जब उद्योग भी राज्यों की विषय सूची में आते हैं, फिर दिल्ली की सरकार उन्हें क्यों अरबों रुपए की छूट देती है। वास्तविकता यह है कि 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद कृषि क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता सूची से गायब हो चुका है। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के चिंतकों का मानना है कि देश का कायाकल्प करने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है। तेज औद्योगिक विकास से रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे और जनता खेती छोड़ कर उद्योगों से जुड़ेगी। आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ने का लाभ आखिरकार गरीबों और किसानों को भी मिलेगा। लेकिन तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं। पिछले दस साल में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इसके बावजूद इस क्षेत्र में केवल डेढ़ करोड़ नौकरियां मिलीं। हर साल औसतन पंद्रह लाख नौकरी। इस अवधि में गांव में रहने वाली जनता की माली हालत और खराब हुई है। अमीर-गरीब के बीच की खाई चौड़ी हुई है। स्थिति यह है कि आज बयालीस प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उनके पास रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं है। इस संदर्भ में ताजा जारी रंगराजन समिति और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी है। पिछले साल मनमोहन सिंह सरकार ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के आधार पर दावा किया था कि देश में कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) आबादी की संख्या घट कर केवल 21.9 प्रतिशत रह गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गांव में जिस आदमी की आमदनी हर दिन सत्ताईस रुपए और शहर में तैंतीस रुपए से अधिक है वह कंगाल नहीं है। इस सत्ताईस और तैंतीस रुपए में एक आदमी का खाने, दवा, शिक्षा, कपडेÞ और स्वास्थ्य का खर्चा शामिल है। इस रिपोर्ट का विरोध होने पर रंगराजन समिति गठित की गई, जिसने तेंदुलकर समिति की सिफारिशों में संशोधन कर दिया है। रंगराजन समिति के अनुसार गांव में जिस व्यक्ति की दैनिक आय बत्तीस और शहर में सैंतालीसरुपए से कम है, वही कंगाल की श्रेणी में आता है।  नए मापदंड के मुताबिक अब देश की 21.9 फीसद नहीं, 29.5 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है। रंगराजन समिति की सिफारिश जारी होने के आसपास संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया में गरीबी के आंकड़े जारी किए। इन आंकड़ों के अनुसार दुनिया के तैंतीस प्रतिशत कंगाल अकेले हिंदुस्तान में रहते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या अस्सी करोड़ है। यह तथ्य चौंकाता है, सरकारी दावों की पोल खोलता है। सरकारी आंकड़ों पर इसलिए भी शक होता है कि अगर देश में कंगाल आबादी केवल उनतीस फीसद है तो ताजा पारित खाद्य सुरक्षा कानून में क्यों सड़सठ प्रतिशत लोगों को सस्ता गेंहू-चावल देने की बात कही गई है? क्या हमारी सरकार इतनी उदार है कि वह कंगाल से ऊपर की आबादी पर सस्ता गेंहू-चावल लुटा देगी? कंगालों और गरीबों की बात करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इस तबके के अधिकतर लोग गांवों में रहते हैं। इंद्रदेव के रूठ जाने की मार भी सबसे ज्यादा उन पर पड़ती है। गांवों में गरीबी की स्थिति यह है कि आज देश के साठ प्रतिशत किसान रात को भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। दुख की बात है कि देश की अन्नदाता कही जाने वाली जमात अपना और अपने बच्चों का पेट भरने की हैसियत नहीं रखती। रही-सही कसर महंगाई ने पूरी कर दी है। सरकार ने दावा किया है कि मई के मुकाबले जून में महंगाई घटी है, लेकिन बाजार में खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में जिस हिसाब से बढ़ोतरी हुई है उसे देख कर कहा जा सकता है कि आगे आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे। फलों की कीमत में 23.17 प्रतिशत, सब्जियों में 15.27 प्रतिशत, दुग्ध उत्पादों में 11.8 फीसद और मांस-मछली-अंडे में 10.11 फीसद की वृद्धि की बात तो सरकारी आंकड़े भी स्वीकार करते हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि खाद्य सामग्री की महंगाई शहरों के मुकाबले गांवों में अधिक होती है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत सिखाता है कि अगर महंगाई सालाना पांच फीसद के हिसाब से बढ़ती है तो पचीस साल में कीमतें दो सौ चालीस प्रतिशत ऊंची हो जाती हैं। यूपीए सरकार के दस बरस के शासन में खाद्य पदार्थों का मूल्य लगभग दो सौ प्रतिशत बढ़ा। उल्लेखनीय है कि यह आंकड़ा थोक मूल्य का है। इस सच से सभी वाकिफ हैं कि खुदरा बाजार में सब्जी, फल, दूध जैसी जल्दी खराब होने वाली चीजों की कीमत दो से तीन गुना ज्यादा होती है। ऐसे में आम आदमी की पीड़ा का अंदाज लगाया जा सकता है। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे विकसित देशों में आम आदमी की माली हालत हमारे देश से कहीं बेहतर है, फिर भी वहां महंगाई का आंकड़ा पांच फीसद से नीचे है। हमारे देश में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊंची है और जनता की कमाई सीमित। ऐसे में उस पर महंगाई की मार का अंदाजा लगाजा सकता है। सरकारी नीतियों की कमजोरी के कारण ही पर्याप्त सप्लाई के बाद भी खाद्य पदार्थ महंगे हैं। महंगाई अब खतरनाक मुकाम पर पहुंच चुकी है। दाल-सब्जी जैसी जरूरी चीज गरीब की थाली से गायब होती जा रही है। गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा जरिया दाल है और जब यही नसीब नहीं होगी, तो उन्हें कुपोषण की चपेट में आने से कोई नहीं बचा सकता। हमारे देश में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। मोदी सरकार को नीतियां सुधारने पर ध्यान देना होगा। मोदी सरकार की दूसरी बड़ी चुनौती औद्योगिक उत्पादन को गति देना होगा, क्योंकि इसके बिना रोजगार के अवसर पैदा करना असंभव है। आज बड़ी संख्या में किसान और मजदूर खेती छोड़ कर अन्य क्षेत्रों में रोजगार खोज रहे हैं। मेन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) क्षेत्र ही ऐसा है, जहां खेतिहर मजदूरों को खपाया जा सकता है। एक सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-22 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा, जिससे हर साल रोजगार के 80.90 लाख अतिरिक्त अवसर सृजित करने होंगे। इस हिसाब से 2025 तक सरकार को बीस करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह लक्ष्य विनिर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है। आज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी महज सोलह फीसद है। हमारे देश में दो दशक से अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का योगदान लगभग स्थिर है। यह चिंताजनक संकेत है। चीन की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान चौंतीस प्रतिशत है। इस कमजोरी के कारण ही विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी महज 1.8 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को अच्छे दिनों का भरोसा दिलाया था। सत्ता संभालते ही नई सरकार को मानसून और महंगाई से कड़ी चुनौती मिली है। इस चुनौती का सामना करने के लिए उसे अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करना पड़ेगा। अग्निपरीक्षा में खरा उतरने पर ही भाजपा सरकार जन-विश्वास जीत सकती है।
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टिकाऊ खेती की जरूरत

Sun, 21 Sep 2014

किसानों द्वारा कृषि से विमुख होना और उनमें आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति वर्तमान में पूरी दुनिया की एक दुखदायी हकीकत बन रही है। इस पर मुझे आश्चर्य भी होता है कि क्यों नहीं सघन खेती कार्य को सुरक्षित कृषि में क्यों नहीं बदला जा पा रहा है जिससे कृषि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होने के साथ ही दीर्घकालिक रूप से भी टिकाऊ बन सके। अक्सर कहा जाता है कि तकनीकी प्रगति के अभाव में देश भविष्य की खाद्य जरूरतों की चुनौती को पूरा नहीं कर सकता। चीनी कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रचलित खेती की विधियों के अन्य वैकल्पिक उपायों को लेकर एक महत्वपूर्ण अध्ययन किया। यह अध्ययन कार्य तीन वषरें तक 2009 से 2012 के बीच किया गया, जो कि पूर्वी और दक्षिणी चीन के 153 स्थानों पर हुआ। इससे वही निष्कर्ष सामने आए जिसे मैं वषरें से कहता आ रहा हूं। इसमें फसलों का चयन करने के लिए एकीकृत भू-फसलीय पद्धति, पौधरोपण की विधि, बीज बोने के समय और पोषण प्रबंधन के माध्यम से उच्च उत्पादकता हासिल करने के तौर-तरीकों पर निगाह डाली गई।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में बायोलॉजी विभाग के प्रोफेसर पीटर विटसेक के मुताबिक यदि हम अत्यधिक उच्च उत्पादन को अत्यधिक निम्न पर्यावरणीय क्षति से जोड़ सकते हैं और चीन में ऐसे परिणाम हासिल भी हो रहे हैं तो फिर एक वास्तविक उम्मीद जगती है और इसे दुनिया के दूसरे देशों में भी दोहराया जा सकता है। इस एकीकृत दृष्टिकोण को जब गेहूं, मक्का और चावल के मामले में अपनाया गया तो 97 से 99 फीसद की उच्च उत्पादकता हासिल की गई, जिसमें रासायनिक पदार्थ नाइट्रोजन की भी बर्बादी नहीं की गई औन न ही ग्रीनहाउस गैसों का कोई उत्सर्जन हुआ। अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि पर्यावरण और स्वास्थ्य पर बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के कृषि आय में बढ़ोतरी हुई। नेचर पत्रिका में 3 सितंबर, 2014 को प्रकाशित एक लेख में लेखक ने दावा किया कि 2012 में जिस भूमि पर किसानों ने 80 फीसद उत्पादकता हासिल की उतनी ही भूमि पर 2030 में चीन अपनी मानव और पशु आबादी को पर्याप्त खाद्य अथवा भोजन उपलब्ध करा सकेगा। इतना ही नहीं इस अवधि में वह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 25 फीसद और नाइट्रोजन नुकसान में 50 फीसद तक की कमी ला सकेगा। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के मुताबिक विश्व के दूसरे क्षेत्रों में भी तकनीक का उपयोग किया जा सकता है, जिससे पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना अधिक उत्पादकता को हासिल किया जा सकेगा। स्टैनफोर्ड का यह अध्ययन ऐसे समय आया है जब आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों, जो अब तेलंगाना का हिस्सा बन गए हैं, में भी कुछ ऐसे ही अनुभव अथवा निष्कर्ष सामने आए हैं। संभवत: यह दुनिया का सबसे बड़ा पारिस्थितिकीय कृषि रूपांतरण है। हालांकि जलवायु परिवर्तन प्रभाव के चलते सामुदायिक टिकाऊ कृषि प्रबंधन पर अध्ययन किया जाना अभी भी शेष है, लेकिन जो बात अधिक स्पष्ट है वह यह कि रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग और दुरुपयोग से उपजा पर्यावरणीय प्रदूषण तेजी से कम हुआ है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 36 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैले हुए तकरीबन 20 लाख किसान गैर-कीटनाशक उपायों को अपना रहे हैं।
स्टैनफोर्ड अध्ययन की तरह ही आंध्र प्रदेश में भी सामुदायिक टिकाऊ कृषि प्रबंधन के माध्यम से बहुत कम पर्यावरणीय नुकसान के साथ उच्च उत्पादकता हासिल की गई। यहां मिट्टी की उर्वरता में सुधार आया है, भूमिगत जल का स्तर बढ़ा है, कीटों का हमला कम हुआ है, जिससे स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण के कारण कृषक समुदाय के स्वास्थ्य खचरें में कमी आई है। सबसे अधिक इन क्षेत्रों में आत्महत्या की भी कोई रिपोर्ट नहीं है। साफ है कि चीन का अनुकरण करने वाले आंध्र प्रदेश में भी तकनीकी विकास हुआ है। एकीकृत भूमि और पोषण तकनीक के इस प्रारूप में जो अंतर है वह यही कि इनकी ब्रांडिंग बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह नहीं है और न ही इन्हें बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा मदद दी जाती है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को स्वायल-हेल्थ कार्ड देने की जरूरत जताई तो उन्होंने खेती की निम्न कृषि लागत पर ही बल दिया। भारतीय कृषि शोध परिषद अथवा आइसीएआर और कृषि मंत्रालय को वैसे आधुनिक तकनीक शोध में बदलाव लाने की आवश्यकता है, जिससे पर्यावरण को बहुत अधिक क्षति होती है। कृषि विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रयोगशाला से खेतों और खेतों से प्रयोगशाला की दोहरी प्रक्रिया अथवा नजरिये पर ध्यान केंद्रित करें। यहां मैं चीन में अपनाई गई एक और सरल विधि का उल्लेख करना चाहूंगा जिससे उत्पादकता बहुत बढ़ी है।
अमेरिका की ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी और चीन के युन्नान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक तरह की खेती से बहुफसली और विविध कृषि पद्धति पर प्रयोग किए हैं। इस विधि से बिना कोई खर्च बढ़ाए और बिना किसी खतरनाक फसलीय बीमारी के किसानों को चावल की उत्पादकता दो गुना तक बढ़ाने में मदद मिली है। यह प्रयोग एक लाख एकड़ क्षेत्र में किया गया, जिसमें दसियों हजार किसानों ने भाग लिया। वैज्ञानिकों ने किसानों से अपने खेतों में दो किस्म के चावल अथवा धान रोपने को कहा। इनमें एक किस्म वह थी जिसमें रोग लगने की संभावना थी, जबकि दूसरी किस्म रोग प्रतिरोधक थी। इसे एक ही तरह के खेतों पर आजमाया गया और परिणाम चौंकाने वाले हासिल हुए। ऐसे समय में जबकि जलवायु परिवर्तन से बचाव वाली विधियों और रणनीतियों पर वैश्रि्वक बहस हो रही है तो चीन में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रयोगों से खेती के वैकल्पिक रूपों को लेकर एक नई दिशा मिली है। मैं अक्सर कहता हूं कि कृषि से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने का सबसे अच्छा तरीका खेती की वर्तमान पद्धति को पारिस्थितिकीय दृष्टि से टिकाऊ खेती में बदल देना है, क्योंकि इससे तकरीबन 25 फीसद ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है। हमें जोखिमयुक्त जीएम फसलों पर जोर देने के बजाय एकीकृत खेती की पद्धतियों को अपनाना चाहिए।
[लेखक देविंदर शर्मा, खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं]
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घाटे का सौदा नहीं रहेगी खेती

Mon, 15 Sep 2014

किसानों के अथक परिश्रम से देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया और आज अनाज के विशाल भंडार भरे हैं। लेकिन किसान हमेशा तंगहाली में रहे, उनके लिए खेती घाटे का सौदा रहा। अब नई सरकार ने किसानों की आमदनी बढ़ाने और खेती को फायदेमंद बनाने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार नकदी देने वाले बागवानी, जैविक खेती, पशुपालन, डेयरी जैसे क्रियाकलापों को प्रोत्साहित करने की योजना बना रही है। इसके अलावा सरकार स्वायल हेल्थ कार्ड भी किसानों को दे रही है ताकि उन्हें पता चल सके कि उनके खेत में कौन सी खाद डालने की जरूरत है? सरकार नई बीमा योजना भी ला रही है जिससे किसानों की खेती भी आपदा की मार से बच सकेगी। ऐसे ही तमाम नीतिगत मुद्दों पर राष्ट्रीय ब्यूरो के डिप्टी चीफ सुरेन्द्र प्रसाद सिंह ने कृषि मंत्री राधामोहन सिंह से लंबी बातचीत की। पेश हैं कुछ अंश-
खेत की मिट्टी की जांच के लिए स्वायल हेल्थ कार्ड की घोषणा जोर-शोर से हो रही है। क्या इसके लिए टेस्ट लैब भी उपलब्ध हैं?
जमीन की सेहत के लिए सरकार ने प्रत्येक किसान को स्वायल हेल्थ कार्ड देने का निश्चय किया है। इसे मिशन मोड में चलाने की योजना है। चालू वर्ष में ही साढ़े तीन करोड़ किसानों को और अगले दो वषरें में हर साल साढ़े पांच करोड़ कार्ड देने की योजना है। इस योजना को समय से पूरा कर लिया जाएगा। खेती की उपज बढ़ाने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कार्य है। सालभर के भीतर राज्यों को एक सौ से अधिक मोबाइल स्वायल हेल्थ लैबोरटरी उपलब्ध करा दी जाएंगी।
खाद्य वस्तुओं की मांग-आपूर्ति में अंतर बढ़ने से ही महंगाई जोर पकड़ती है। इसके लिए सरकार क्या करेगी?
खाद्य उत्पादों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम को संशोधित किया गया है। सब्जियों व फलों को मंडी कानून के दायरे से अलग कर दिया गया है। किसान मंडी स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। किसानों को उनके उत्पाद की उचित कीमत मिले और उपभोक्ताओं को सही मूल्य में सामान उपलब्ध कराने के लिए ऐसा किया गया है।
जल्दी खराब होने वाले कृषि उत्पादों के रखरखाव के लिए ग्रामीण भंडारण योजना का क्या हाल है?
ग्रामीण भंडारण योजना पर तेजी से अमल किया गया है। चालू वित्त वर्ष के लिए आवंटित राशि सरकार ने तीन महीने के भीतर ही लंबित सभी परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान कर दी है। महंगाई रोकने की दिशा में यह बड़ी पहल है।
कृषि उपज बीमा की प्रस्तावित योजना कब तक लागू होगी।
वर्तमान फसल बीमा योजना में अनेक विसंगतियां हैं। इस पर राच्यों से उनकी राय मांगी गई है। कुछ राच्यों ने सुझाव भेज भी दिए हैं। प्रस्तावित नई फसल बीमा योजना के दायरे में किसानों की पैदावार, उत्पादकता और आय को बीमा में शामिल किया जाएगा। इस बीमा योजना को चालू वित्त वर्ष में ही शुरू करने की तैयारी है।
देश में सहकारिता क्षेत्र का हाल बुरा है। सरकार इस दिशा में क्या सोच रही है?
इसीलिए बहुराच्यीय सहकारिता पंजीकरण संबंधित सभी सूचनाएं आन लाइन उपलब्ध कराना शुरू कर दिया गया है। इसमें सुधार की संभावनाएं हैं। सभी पक्षकारों के साथ चर्चा के बाद अहम फैसला लिया जाएगा।
जैविक खेती को लेकर सरकार की कोई नीति नहीं है। रासायनिक खाद के उपयोग से भूमि की उर्वरा क्षमता घट रही है। आपकी क्या नीति है?
जैविक खेती को प्रभावी बनाने के लिए कृषि मंत्रालय ने 'भारतीय परंपरागत कृषि विकास योजना' प्रारंभ करने की पूरी तैयारी कर ली है। सरकार व्यापक विचार-विमर्श के बाद जल्दी ही राष्ट्रीय जैविक कृषि नीति तैयार करेगी, यह इसी साल लागू हो जाएगी। इससे खेती में रासायनिक खादों पर निर्भरता कम होगी और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बढ़ेगा। इस तरह के जैविक उत्पादों के लिए मंडी विकसित की जाएगी।
कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भाजपा के घोषणापत्र में बहुत कुछ कहा गया है। क्या इस दिशा में कुछ हो रहा है?
देश को मजबूत बनाने के लिए किसानों को मजबूत बनाना होगा। इसके लिए खेती की उपज बढ़ानी होगी, जो उत्पादकता बढ़ने से ही संभव है। लागत कम करके पैदावार बढ़ाने से किसानों की आय में वृद्धि होगी। खेती की इनपुट लागत में कमी करना हमारी प्राथमिकता है। किसानों को उन्नत बीज, आधुनिक टेक्नोलॉजी व हर खेत तक पानी पहुंचाकर उसे मजबूत किया जा सकता है। कृषि अनुसंधान और किसानों को जागरूक बनाना भी जरूरी है।
सीएसीपी के पुनर्गठन को लेकर सरकार क्या सोच रही है?
कृषि लागत व मूल्य आयोग वैधानिक संस्था है, जो स्वायत्त रूप से कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। सामान्य तौर पर सरकार उसकी सिफारिशों को मान लेती है। किसानों को अच्छा मूल्य दिलाने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है।
दलहन व तिलहन की खेती में न उपज बढ़ रही है और न ही उत्पादकता।
दाल और खाद्य तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नहीं है। हमने आगामी रबी सीजन की तैयारी सम्मेलन का एजेंडा तैयार किया है, जिसमें राच्यों के कृषि मंत्रियों से चर्चा करेंगे। रबी सीजन में देश के विभिन्न हिस्सों में दलहन और तिलहन खेती के योग्य भूमि है। बारिश अच्छी हो रही है। रबी सीजन में इन दोनों फसलों की अच्छी खेती की उम्मीदें है। हमें उम्मीद है दलहन और तिलहन की खेती का रकबा बढ़ेगा, जिस पर हम राच्यों से लगातार संपर्क में हैं।
कृषि आंकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद सवाल उठाते रहे हैं। इसमें सुधार के क्या उपाय हो रहे हैं?
कृषि संबंधित आंकड़ों से ही हमारा मार्गदर्शन होता रहा है। प्रस्तावित कृषि बीमा योजना में तो इसका और महत्व बढ़ जाएगा। इनके आंकड़ों पर कभी कभी शिकायतें भी आती रही हैं। राच्यों के तंत्र से मिले आंकड़ों की प्रमाणिकता पर संदेह स्वाभाविक है। खेती से संबंधित आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं।
कृषि विज्ञान केंद्रों में सुधार के लिए क्या किया जा रहा है?
देश में 639 कृषि विज्ञान केंद्र हैं। इनमें लगभग एक सौ केवीके का संचालन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबद्ध संस्थान करते हैं। लगभग इतने ही केवीके गैर सरकारी संगठनों के पास हैं। बाकी सभी केवीके राच्यों के कृषि विश्वविद्यालयों के पास हैं। लेकिन इनकी हालत अच्छी नहीं है। केंद्र सरकार इन्हें तकनीकी और वित्तीय मदद देती है। लेकिन तमाम ऐसे केवीके हैं, जहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। अगले दो वर्ष के भीतर केंद्र की ओर से इन्हें ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल और जीप उपलब्ध कराई जाएगी।
आइसीएआर की भूमिका पर अंगुली उठती रही है। इसकी कार्य प्रणाली में सुधार के क्या प्रयास किए जाएंगे?
आइसीएआर के विभिन्न संस्थानों के कृषि वैज्ञानिकों ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। उन्नत किस्म के बीज और कृषि प्रौद्योगिकी इजाद की गई है, जिसका लाभ खेती की उत्पादकता बढ़ाने में किया गया है। मानव संसाधन विकास की दिशा में भी इसका योगदान है।
[लेखक राधामोहन सिंह, केंद्रीय मंत्री हैं]




जीएम फसल



जीएम फसलों का सच   

  Thu, 13 Feb 2014

प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह ने यह कहकर राष्ट्रीय बहस तेज कर दी है कि जैव संव‌िर्द्धत (जीएम) फसलों के खिलाफ अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होना गलत है। जम्मू में 101वीं इंडियन साइंस कांग्रेस को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जैव प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की प्रचुर संभावना है और उनकी सरकार कृषि विकास के लिए इन नई तकनीकों को प्रोत्साहन देने के प्रति वचनबद्ध है। विवादास्पद जीएम प्रौद्योगिकी की तारीफ में प्रधानमंत्री का बयान चौंकाता नहीं है। जयराम रमेश और जयंती नटराजन को जीएम फसलों के विरोध के कारण पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया है। जयराम रमेश ने बीटी बैगन पर शोध को स्थगित कर दिया था। अगर इसकी अनुमति दे दी जाती तो इससे अन्य अनेक जीएम फसलों की बाढ़ आ जाती। उनके बाद पर्यावरण मंत्रालय संभालने वाली जयंती नटराजन ने जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल की अनुमति देने की उद्योग जगत की मांग के दबाव के सामने से झुकने से मना कर दिया था।  इस क्षेत्र में बहुत कुछ दांव पर लगा है। अरबों डॉलर के इस उद्योग को जीएम फसलों को अनुमति देने से भारत के इन्कार से करारा झटका लगा है। अनेक राज्य सरकारों द्वारा जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल को अनुमति देने से इन्कार करने, कृषि पर संसद की स्थायी समिति के विरोध और सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गई टैक्नीकल एक्सपर्ट कमेटी के इन्कार के बाद अब उद्योग जगत पीछे के दरवाजे से जीएम फसलें लाने का दबाव डाल रहा है। यहां यह समझना बहुत जरूरी हो जाता है कि उद्योग जगत के तथाकथित वैज्ञानिक दावों की सच्चाई क्या है और क्या जीएम फसलें वास्तव में मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं। प्रधानमंत्री का कहना है कि जीएम प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की बड़ी संभावनाएं हैं। ऐसे ही दावे उद्योग जगत भी करता है, किंतु सच्चाई यह है कि अमेरिका में 20 साल पहले पहली जीएम फसल आने के बाद से आज तक कोई ऐसी जीएम फसल नहीं है तो पैदावार बढ़ा सकती हो। अमेरिका के कृषि विभाग के अध्ययन से पता चलता है कि जीएम मक्का और जीएम सोयाबीन की पैदावार परंपरागत प्रजातियों से भी कम है। यहां तक कि भारत में सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, नागपुर ने स्वीकार किया है कि 2004 से 2011 के बीच के नतीजों पर गौर करने से पता चलता है कि बीटी कॉटन की पैदावार में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई है। इस दलील में कोई दम नहीं है कि 2050 तक बढ़ी हुई जनसंख्या का पेट भरने के लिए अधिक पैदावार की जरूरत पड़ेगी जिसके लिए जीएम फसलों की जरूरत है। सवाल उठता है कि क्या विश्व में खाद्यान्न की कमी है? यूएसडीए के आकलन के अनुसार 2013 में विश्व में 14 अरब लोगों का पेट भरने लायक खाद्यान्न उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में विश्व में वर्तमान आबादी से दोगुनी जनसंख्या के लिए खाद्यान्न का उत्पादन किया। फिर भी अरबों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ा। असल समस्या पैदावार की कमी नहीं है, बल्कि खाद्यान्न की बर्बादी है। करीब 40 प्रतिशत खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। अकेले अमेरिका में ही 163 अरब डॉलर का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है, जो पूरे अफ्रीका की आबादी का पेट भर सकता है।  भारत में करीब 25 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। यह भुखमरी खाद्यान्न की कमी के कारण नहीं है। जून 2013 में भारत में 8.23 करोड़ टन का अतिरिक्त खाद्यान्न हुआ। इसमें से करीब दो करोड़ टन का निर्यात कर दिया गया। भंडार किए गए खाद्यान्न का खर्च घटाने के लिए दो करोड़ खाद्यान्न के निर्यात करने की योजना है। खाद्य उत्पादन बढ़ाने के बजाय कृषि मंत्रालय खाद्यान्न की सरकारी खरीद घटाने की योजना बना रहा है। जीएम फसलों से कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आने का दावा भी थोथा साबित हुआ है। वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता चा‌र्ल्स बेंबरुक ने 1996 से 2011 के बीच के अध्ययन से पता लगाया कि अमेरिकी किसानों ने करीब पांच करोड़ लीटर रासायनिक कीटनाशकों का अतिरिक्त इस्तेमाल किया। 2012 में जीएम किसानों द्वारा औसतन 20 प्रतिशत अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया। नई किस्म की जीएम फसलों के आने के बाद अब यह आंकड़ा 25 प्रतिशत पर पहुंचने की संभावना है। इन नई किस्म की जीएम फसलों में खतरनाक कीटनाशकों के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है। इसी प्रकार, अजर्ेंटीना, ब्राजील और चीन में भी जीएम फसलों के कारण कीटनाशकों का इस्तेमाल घटने के बजाय बढ़ गया है।  भारत में भी कहानी कुछ अलग नहीं है। भारत में भी कीटनाशकों का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। 2005 में कॉटन पर 649 करोड़ रुपये के रासायनिक कीटनाशकों को छिड़काव किया गया था। 2010 में कॉटन की खेती में 92 प्रतिशत हिस्सा बीटी कॉटन किस्मों का हो गया है। इसी के साथ कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाकर 880 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल जितना ही चिंताजनक है ऐसे कीटों का उभरना जिनका खात्मा लगभग असंभव है। इन्हें सुपर कीट कहा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अमेरिका में करीब 10 करोड़ एकड़ क्षेत्रफल सुपर कीटों से प्रभावित है। अमेरिका के राज्यों में कुछ किसान हाथों से कीटों का सफाया करने को मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि इन पर कोई कीटनाशक असरदार नहीं है। कनाडा में 10 लाख एकड़ से अधिक क्षेत्र में सुपर कीटों का कब्जा है। अध्ययनों से पता चलता है कि जीएम फसल आने के बाद से 21 कीटों पर रासायनिक कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा। कीट-पतंगे भी जीएम फसलों के प्रति प्रतिरक्षा विकसित कर चुके हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि भारत में बॉलवर्म कीटों पर रासायनिक कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा है। जीएम फसलों से न तो पैदावार में वृद्धि हो रही है और न ही कीटनाशकों का इस्तेमाल घट रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जीएम फसलों की तरफदारी समझ से परे है। वास्तव में अब तमाम साक्ष्य औद्योगिक कृषि के युग के खात्मे की ओर संकेत कर रहे हैं। जीएम फसलों से मिट्टी विषैली होती है, भूजल का स्तर गिरता है और रासायनिक कीटनाशकों और खाद के अधिक इस्तेमाल के कारण पूरी खाद्यान्न श्रृंखला जहरीली हो जाती है। इस कारण अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।  कृषि को बचाना है तो पर्यावरण के अनुकूल खेती को अपनाना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश में करीब 35 लाख हेक्टेयर जमीन में रासायनिक कीटनाशकों के बिना ही खेती की जा रही है। करीब 20 लाख हेक्टेयर में रासायनिक खाद का भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। इसके बावजूद उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, प्रदूषण घट रहा है, मिट्टी की उर्वरता बढ़ रही है और किसानों की आय में वृद्धि हो रही है। क्या प्रधानमंत्री को खेती के इस मॉडल की वकालत नहीं करनी चाहिए थी? जब यह प्रयोग 35 लाख हेक्टेयर में सफल हो सकता है तो साढ़े तीन सौ लाख हेक्टेयर में क्यों नहीं? इसी पर भारतीय कृषि का भविष्य निर्भर टिका है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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विवाद के बीज

Tuesday, 22 July 2014 11:44

जनसत्ता 22 जुलाई, 2014 : जीएम यानी जीन-संशोधित बीजों या फसलों को लेकर कुछ वर्षों से काफी तीखा विवाद रहा है। इसके पक्षधर जहां जीएम तकनीक से फसलों की कीटरोधी प्रजातियां विकसित होने और पैदावार बढ़ने की दलील देते रहे हैं, वहीं अनेक कृषि वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, जैव विविधता और स्वास्थ्य के मसलों पर सक्रिय संगठनों ने जीएम फसलों को लेकर लगातार आगाह किया है। आलोचकों का कहना है कि जीएम की तरफदारी में किए जाते रहे दावे अतिरंजित हैं। फिर, सेहत और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर की अनदेखी हरगिज नहीं की जा सकती। जहां वैज्ञानिक समुदाय भी बंटा हो और बड़े पैमाने पर परस्पर विरोधी आकलन हों, वहां अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं होता। ऐसे में फूंक-फूंक कर ही कदम रखा जाना चाहिए। अगर मसला पूरी कृषि प्रणाली, खाद्य सुरक्षा और लोगों की सेहत से जुड़ा हो, तो सावधानी की और भी जरूरत है। इसलिए जेनेटिक इंजीनियरिंग मंजूरी समिति ने जैसी हड़बड़ी दिखाई है उससे कई सवाल उठते हैं। पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाली इस समिति ने चावल, सरसों, कपास, बैंगन जैसी कई प्रमुख फसलों के जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण की इजाजत दे दी है। जाहिर है, इस अनुमति का मकसद इन जीएम फसलों की खेती का रास्ता साफ करना है। समिति के इस फैसले पर और बहुत-से लोगों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच ने भी सवाल उठाए हैं। बीते शनिवार को जारी एक बयान में मंच ने इसे देश की जनता के साथ धोखा करार दिया है। लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भाजपा ने कहा था कि जमीन की उर्वरा-शक्ति और लोगों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के दीर्घकालीन असर का सर्वांगीण वैज्ञानिक आकलन किए बगैर ऐसे बीजों की बाबत कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। फिर इतने ही दिनों में दीर्घकालीन असर का पता कैसे लगा लिया गया कि पर्यावरण मंत्रालय की समिति ने जमीनी प्रयोग शुरू करने के लिए हरी झंडी दे दी? अगस्त 2012 में कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने पूरी तरह जीएम फसलों के खिलाफ अपनी रिपोर्ट दी थी; इस समिति में भाजपा के सदस्य भी शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित विशेषज्ञ समिति ने भी इसी तरह की राय दी थी। उसने सर्वोच्च अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसलों पर तब तक रोक रहनी चाहिए, जब तक इस मसले पर एक स्वतंत्र नियामक प्राधिकरण का गठन नहीं हो जाता। जेनेटिक इंजीनियरिंग मंजूरी समिति को संसदीय समिति की सिफारिश और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ समिति की राय न मालूम रही हो, यह नहीं माना जा सकता। फिर, उसने इस सब की अनदेखी कैसे कर दी? पर्यावरण मंत्रालय भाजपा के घोषणापत्र में दिए गए आश्वासन से भी क्यों मुकर गया? इस सब से यह संदेह पैदा होता है कि कहीं जीएम लॉबी को खुश करने की मंशा या इसका दबाव रहा होगा। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को उस चीज की फिक्र नहीं है, जिसके वे मंत्री हैं। उद्योग-हितैषी दिखने के उत्साह में उनके मंत्रालय ने थोड़े ही दिनों में कई पर्यावरण-विरोधी फैसले किए हैं। केवल पैदावार बढ़ने के तर्क पर जीएम बीजों को नहीं अपनाया जा सकता, क्योंकि खाद्य का मतलब केवल किसी तरह पेट भरना नहीं होता, यह भी होता है कि वह सेहत के लिए मुफीद हो। फिर, खाद्य सुरक्षा की दलील देकर जीएम बीजों की वकालत करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हर साल देश में कितना अनाज, सब्जियां और फल बर्बाद हो जाते हैं। पहले इस बर्बादी को रोकने का जतन क्यों नहीं किया जाता! 

खाद्यान्न सुरक्षा



खाद्यान्न सुरक्षा हो सर्वोपरि
Saturday,Jul 26,2014

भारत ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा चिंता के मद्देनजर डब्ल्यूटीओ द्वारा प्रस्तावित व्यापार सरलीकरण समझौते को स्वीकार करने अथवा इस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया है। भारत चाहता है कि मौजूदा नियमों में सुधार किया जाए, क्योंकि इसके कारण खाद्यान्नों की खरीद का काम असंभव हो जाएगा। वाणिज्य राच्यमंत्री निर्मला सीतारमन ने इस बात से अवगत कराया है कि इस समझौते से लाखों छोटे किसानों के हितों को नुकसान पहुंचेगा। यदि भारत अपने रुख पर कायम रहता है तो डब्ल्यूटीओ के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब किसी समझौते के क्त्रियान्वयन को रोकना पड़ेगा। अपने स्थापना काल से ही डब्ल्यूटीओ किसी भी समझौते को क्त्रियान्वित करने के लिए सर्वानुमति से काम करता रहा है। भारत के लगातार विरोध के कारण व्यापार सरलीकरण समझौता खतरे में पड़ गया है। इस पर हस्ताक्षर करने की अंतिम तिथि 31 जुलाई है। विकसित देश व्यापार सरलीकरण समझौते को शीघ्र लागू करने के पक्ष में हैं, क्योंकि इससे उन्हें विकासशील देशों के बाजार तक पहुंच बढ़ाने के अधिक अवसर मिलेंगे। इससे सीमा संबंधी अड़चनें दूर होंगी और आयात अधिक आसान होगा। हालांकि भारत ने साफ कर दिया है कि राच्य की तरफ से गरीबों के लिए चलाए जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर समझौता नहीं किया जा सकता। मुझे नहीं लगता कि डब्ल्यूटीओ के व्यापार सरलीकरण समझौते में देरी के लिए राजनीतिक उत्साह को दोष दिया जा सकता है। यदि डब्ल्यूटीओ ने भारत की खाद्य सुरक्षा चिंताओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया होता तो यह मामला हल हो सकता था। यह कोई पहली बार नहीं है जब भारत ने खाद्यान्न सुरक्षा मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करने की बात कही हो। दिसंबर 2013 में बाली में हुए डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में तत्कालीन वाणिच्य मंत्री आनंद शर्मा ने भी यही बात कही थी, लेकिन यह सब अंतिम समय में हुआ था। परिणामस्वरूप उन्हें जो हासिल हुआ वह यही कि अगले चार वषरें तक खाद्यान्न सब्सिडी जारी रखी जा सकेगी। मुझे संदेह है कि खाद्यान्न सुरक्षा के मुद्दे पर स्थायी समाधान के बिना भारत किसी भी कूटनीतिक दबाव में आएगा और व्यापार सरलीकरण समझौते को स्वीकार करेगा। इसके उलट मैंने यही पाया है कि डब्ल्यूटीओ में भारत ने स्वत: ही आयात को सरल किए जाने के संबंध में कदम बढ़ाए हैं। 2014 के बजट में वित्ता मंत्री अरुण जेटली ने आयातकों के लिए सीमा शुल्क संबंधी प्रावधान की दिशा में एकल खिड़की सुविधा का प्रस्ताव दिया है और पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने की दिशा में 16 नई बंदरगाह परियोजनाओं की घोषणा की है। इसके अतिरिक्त तूतीकोरिन बंदरगाह परियोजना के विकास कार्य के लिए 11,635 करोड़ रुपये दिए हैं। व्यापार कूटनीति को समझने वालों को पता है कि व्यापार सरलीकरण के निर्णयों पर क्त्रियान्वयन को धीमा करने का सबसे अच्छा तरीका दबाव बढ़ाना है। हालांकि भारत की ऐसी कोई इच्छा नहीं है। जब मामला खाद्यान्न सुरक्षा का होता है तो सबसे बड़ी समस्या लोकहित में खाद्यान्न संग्रहण पर किए जाने वाले खर्च की राशि में बढ़ोतरी का आता है। इसके कारण छोटे किसानों से खरीदे जाने वाले गेहूं और चावल की निर्धारित कीमतों में इजाफा होता है। कृषि पर डब्ल्यूटीओ समझौते के प्रावधान के तहत प्रशासित अथवा नियंत्रित कीमत कुल उपज की 10 फीसद की अधिकतम सीमा को पार नहीं कर सकती। चावल के मामले में भारत यह सीमा पहले ही पार कर चुका है, जहां खरीद मूल्य आधार वर्ष 1986-88 के मानक पर 24 फीसद से अधिक पहुंच चुका है। तमाम हो-हल्ले के बावजूद भारत डब्ल्यूटीओ में कहता आ रहा है कि वह अपनी खाद्यान्न सुरक्षा चिंताओं पर समझौता नहीं करेगा। यदि ऐसा कुछ होता है तो भारत को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को खत्म करना होगा और साथ ही जरूरतमंद और भूखे लोगों के लिए खाद्य वितरण के मामले में आधिपत्य रखने वाली भारतीय खाद्य निगम की भूमिका सीमित अथवा खत्म हो जाएगी। मूल्य निर्धारण और सब्सिडी से पीछे हटने के बजाय राजग सरकार ने गरीब अथवा जरूरतमंद लोगों के लिए अधिकाधिक खाद्यान्नों की खरीदारी को कम करने का निर्णय लिया है। इसके अलावा राच्य सरकारों को किसानों की दी जाने वाली नकदी प्रोत्साहन राशि नहीं देने को कहा है, क्योंकि इससे बाजार प्रभावित होता है। भारत अपने कृषि क्षेत्र को स्वायत्ता बनाने के लिए इसका उदारीकरण कर रहा है और खाद्यान्न सब्सिडी के स्थान पर डब्ल्यूटीओ के नियमों को अपना रहा है। वर्तमान खरीफ मौसम में खाद्यान्न महंगाई को बहाना बनाते हुए सरकार ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 रुपये प्रति कुंतल बढ़ा दिया है। यह बिल्कुल वही है जो डब्ल्यूटीओ चाहता है। बाद में इसे वैधानिक स्वरूप देने के लिए 2014 के आर्थिक सर्वेक्षण में राष्ट्रीय बाजार को बनाने की बात कही गई है, जो कि कृषि उत्पाद बाजार समिति अथवा एपीएमसी की सीमाओं को लांघता है। दूसरे शब्दों में एक बार जब एपीएमसी मंडियां अनावश्यक हो जाएंगी तो खरीदारी मूल्य स्वत: ही निष्प्रभावी हो जाएगा। कुल 24 कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, लेकिन केवल गेहूं और चावल के लिए किसानों को सरकारी खरीद मूल्य की दर पर भुगतान किया जाता है और यह काम भारतीय खाद्य निगम द्वारा किया जाता है। शेष अन्य फसलों के लिए, जिनकी खरीदारी मंडियों के लिए नहीं की जाती, उनका न्यूनतम समर्थन मूल्य महज अनुमानित कीमत होती है। यही कारण है कि एपीएमसी मंडियां इनके खरीदारी मूल्य से दूरी रखती हैं और डब्ल्यूटीओ भी यही चाहता है। समय के साथ एपीएमसी मंडियां खत्म कर दी जाएंगी और सरकार नहीं चाहती कि मनमाने ढंग से खरीदारी मूल्यों में बढ़ोतरी हो और डब्ल्यूटीओ प्रावधानों का उल्लंघन हो। खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने केंद्र द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों का पालन करने के लिए राच्यों से पूछा है और किसानों को नकदी बोनस नहीं देने के लिए कहा है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में गेहूं के लिए किसानों को 150 रुपये प्रति कुंतल बोनस दिया जा रहा है। यदि राच्य भारतीय खाद्य निगम की शतरें का उल्लंघन करते हैं तो आपात परिस्थितियों और पीडीएस के लिए जरूरी खाद्यान्न का संग्रहण संभव नहीं होगा। पिछले कुछ वषरें से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री मूल्य वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए किसानों को दोष देते रहे हैं। आम धारणा है कि मूल्यों में बढ़ोतरी के कारण ऐसा हुआ है। आरबीआइ के मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य में 10 फीसद की बढ़ोतरी से अल्पकालिक तौर पर थोक मूल्य में एक फीसद की बढ़ोतरी होती है। अमेरिका में भी यही कहा जाता है। 14 देशों के कृषि निर्यात संघ ने भी इस पर चिंता जताई है और कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को खत्म किया जाए ताकि उनके व्यापारिक हितों का संरक्षण हो। डब्ल्यूटीओ का भी यही निर्देश है। यह समय ही बताएगा कि भारत इसे कितना स्वीकार करता है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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खाद्यान्न सुरक्षा और वैश्विक विसंगतियां
धर्मेंद्रपाल सिंह

 जनसत्ता 28 अगस्त, 2014 : अपने खाद्य सुरक्षा अधिकार की रक्षा के लिए भारत के कड़े रुख के कारण विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के आका अमीर देश भले नाराज हों,
लेकिन अब हमारे समर्थन में कुछ देश और संगठन खुल कर सामने आए हैं। पहले पड़ोसी चीन ने समर्थन दिया और अब संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट (आइएफएडी) के अध्यक्ष ने भारत के पक्ष में पैरवी की है। आइएफएडी अध्यक्ष के अनुसार किसी भी राष्ट्र के लिए अन्य देशों में रोजगार के अवसर सृजित करने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण काम अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है। भारत भी यही चाहता है। जिनेवा में जब डब्ल्यूटीओ वार्ता फिर शुरू होगी तब निश्चय ही चीन और आइएफएडी के समर्थन से भारत को अपना पक्ष मनवाने में मदद मिलेगी। भारत के लिए खाद्य सुरक्षा कानून कितना जरूरी है, यह जानने के लिए विश्व भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) पर दृष्टि डालना जरूरी है। इसके अनुसार भूख के मोर्चे पर जिन उन्नीस देशों की स्थिति अब भी चिंताजनक है उनमें भारत एक है। रिपोर्ट में कुपोषण की शिकार आबादी, पांच साल से कम आयु के औसत वजन से कम बच्चों की संख्या और बाल मृत्यु दर (पांच साल से कम आयु) के आधार पर दुनिया के एक सौ बीस देशों का ‘हंगर इंडेक्स’ तैयार किया गया और जो देश बीस से 29.9 अंक के बीच में आए उनकी स्थिति चिंताजनक मानी गई है। भारत 21.3 अंक के साथ पड़ोसी पाकिस्तान (19.3), बांग्लादेश (19.4) और चीन (5.5) से भी पीछे है। शिक्षा के अभाव, बढ़ती सामाजिक-आर्थिक खाई और महिलाओं की बदतर स्थिति के कारण भारत में विशाल कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) आबादी है। 
इसीलिए भारत ने डब्ल्यूटीओ की जिनेवा बैठक में कड़ा रुख अपनाया, जिससे अमेरिका, यूरोपीय देश और आस्ट्रेलिया बिलबिलाए हुए हैं। भारत ने बैठक में साफ कर दिया कि जब तक उसे अपनी गरीब जनता की खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलेगी तब तक वह व्यापार संवर्धन समझौते (टीएफए) को लागू नहीं होने देगा। मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले साल संसद में खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया था, जो देश की लगभग अस्सी करोड़ आबादी को सस्ता अनाज मुहैया करने की गारंटी देता है। इस कानून के अंतर्गत जरूरतमंद लोगों को तीन रुपए किलो की दर पर चावल, दो रुपए किलो गेहंू और एक रुपया किलो के हिसाब से मोटे अनाज (बाजरा, ज्वार आदि ) प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है। नया कानून लागू हो जाने पर सरकार को करोड़ों रुपए की सबसिडी देनी पड़ रही है। इस साल के बजट में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिए एक सौ पचास लाख करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। डब्ल्यूटीओ के कृषि करार (एओए) के अनुसार किसी भी देश का सबसिडी बिल उसकी कुल कृषि पैदावार का दस प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। पिछले साल बाली (इंडोनेशिया) की डब्ल्यूटीओ बैठक में भारत ने जब इस दस फीसद पाबंदी का प्रबल विरोध किया तो उसे चार साल तक की छूट दे दी गई। छूट के बदले अमीर देशों ने इस वर्ष 31 जुलाई से टीएफए लागू करने की शर्त रखी थी। टीएफए पर अमल का सबसे ज्यादा लाभ अमीर देशों को होगा, इसलिए वे इसे जल्दी से जल्दी लागू कराना चाहते हैं। भारत की मांग है कि टीएफए लागू करने से पहले कृषि सबसिडी विवाद का स्थायी हल खोजा जाना चाहिए। उसे डर है कि टीएफए लागू हो जाने से उसके हाथ बंध जाएंगे। चार साल की छूट खत्म हो जाने के बाद अमीर देश दस फीसद खाद्य सबसिडी की शर्त उस पर थोप देंगे। दुनिया में आज दो तरह की खाद्यान्न सबसिडी चालू है। पहली सबसिडी किसानों को दी जाती है। यह सरकार द्वारा सस्ता उर्वरक और बिजली-पानी मुहैया कराने और न्यूनतम फसल खरीद मूल्य तय करने के रूप में दी जाती है। दूसरी सबसिडी उपभोक्ताओं को मिलती है। राशन की दुकानों से मिलने वाला सस्ता गेहूं-चावल इस श्रेणी में आता है। भारत में दोनों तरह की सबसिडी दी जा रही है और उसका सबसिडी बिल कुल खाद्यान्न उपज के दस प्रतिशत से अधिक है। डब्ल्यूटीओ समझौते के अनुसार अगर कोई देश करार का उल्लंघन करता है तो उसे अपना खाद्यान्न भंडार अंतरराष्ट्रीय निगरानी में लाना पड़ेगा। प्रतिबंधों की मार झेलनी पड़ेगी, सो अलग। भारत ऐसे इकतरफा नियमों का विरोध कर रहा है। 
डब्ल्यूटीओ का कोई भी समझौता सदस्य देशों की सर्वानुमति से लागू हो सकता है। विकसित देश भारत पर आरोप लगा रहे हैं कि विश्व व्यापार के सरलीकरण के लिए जरूरी टीएफए की राह में वह रोड़े अटका रहा है। भारत के नकारात्मक रवैए के कारण उनके निर्यात को भारी नुकसान पहुंचेगा। उनका मानना है कि टीएफए लागू हो जाने से विश्व व्यापार में दस खरब डॉलर की वृद्धि होगी और 2.1 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा। सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय देश अभी तक मंदी की मार से पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। अपना माल बेचने के लिए उन्हें भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे विकासशील देशों के विशाल बाजार की दरकार है। टीएफए लागू हो जाने से करों की दरें कम होंगी और खर्चे घटेंगे। इससे दुनिया की मंडियों में उनका माल कम कीमत पर मिलेगा। भारत और उसके समर्थक विकासशील देशों का मत है कि बड़े देशों को रास आने वाले टीएफए पर अमल से पहले उन्हें अपनी जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। हिंदुस्तान पर बाली में बनी सहमति से पलट जाने का आरोप लगाने वाले अमीर देश यह भूल जाते हैं कि अपना हित साधने के लिए उन्होंने 2005-2006, 2008-2009 और 2013 में कैसे-कैसे अड़ंगे लगाए थे। विश्व बिरादरी की भावनाओं की उपेक्षा कर अमेरिका आज भी अपने किसानों को हर साल बीस अरब डॉलर (बारह खरब रुपए) की सबसिडी देता है और इसी के बूते खाद्यान्न निर्यात कर पाता है। आंकड़े गवाह हैं कि देश की 17.5 फीसद आबादी कुपोषण की शिकार है और चालीस प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। बाल मृत्यु दर भी 6.1 फीसद है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर कोई सरकार ‘इंक्लूसिव ग्रोथ’ मॉडल को ईमानदारी से अपनाए तो विकास दर में जितने फीसद वृद्धि होगी उसकी आधी दर से कुपोषण में कमी आएगी। उदाहरण के लिए, अगर विकास दर में चार प्रतिशत के हिसाब से बढ़ोतरी होती है तो कुपोषण दो प्रतिशत के हिसाब से कम होना चाहिए। हमारे देश में 1990-2005 के बीच औसत विकास दर 4.2 प्रतिशत रही, लेकिन इस दौरान कुपोषण में कमी आई महज 0.65 फीसद। इसका अर्थ यही है कि खुली अर्थव्यवस्था अपनाने का लाभ गरीब और कमजोर वर्ग को न के बराबर मिला है। आज जहां एक ओर करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी नसीब नहीं है, वहीं दूसरी तरफ बेवजह खाकर मोटे हो रहे लोगों का बढ़ता आंकड़ा देश और दुनिया में गरीबों-अमीरों के बीच चौड़ी होती खाई को उजागर करता है। फिलहाल पूरी दुनिया में कुपोषण के शिकार अस्सी करोड़ लोग हैं, जबकि मोटापे की शिकार आबादी एक अरब है। भारत में भी संपन्न तबके में वजन बढ़ने का चलन एक महामारी बन चुका है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न की भरपूर पैदावार होने से पिछले साल गेहूं के मूल्य में सोलह प्रतिशत, चावल में तेईस प्रतिशत और मक्का में पैंतीस प्रतिशत कमी आई थी। तब मानसून की मेहरबानी से भारत में भी खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब देश और दुनिया में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है फिर कुपोषण की शिकार आबादी कम क्यों नहीं हो रही? हाल ही में आई पुस्तक ‘फीडिंग इंडिया: लाइवलीहुड, एंटाइटेलमेंट ऐंड कैपैबिलिट’ में इसका उत्तर खोजा जा सकता है। पुस्तक के लेखकों के अनुसार समस्या पैदावार की नहीं, बल्कि पैदावार जरूरतमंदों तक पहुंचाने से जुड़ी है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक के पैमाने पर इसे कस कर देखने से भी कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। न्यूनतम खरीद मूल्य के तहत सरकार को गेहूं की कीमत औसत चौदह रुपए प्रति किलो पड़ती है। इसमें परिवहन, मंडी कर, भंडारण, अनाज बोरों में भरने, कमीशन, प्रशासनिक खर्च और ब्याज को जोड़ दिया जाए तो लागत लगभग दोगुना हो जाती है। सरकार के अनुसार भ्रष्टाचार और कालाबाजारी के कारण राशन का तीस से चालीस प्रतिशत अनाज जनता तक पहुंच ही नहीं पाता है। अगर इस चोरी को भी जोड़ दिया जाए तो लागत आंकड़ा और ऊपर हो जाएगा। घोर गरीबी के कारण देश की लगभग एक चौथाई जनता बीमारी, बेरोजगारी और अकाल का मामूली-सा झटका झेलने की स्थिति में भी नहीं है। समस्त सरकारी दावों के बावजूद करोड़ों गरीबोें को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा नहीं जा सका है। दूसरी तरफ देश में अरबपतियों की संख्या में लगातार हुआ इजाफा हमारे नीति निर्माताओं की पोल खोलता है। ग्लोबल वैल्थ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभी छियासठ हजार अरबपति हैं और 2018 आते-आते उनकी संख्या बढ़ कर 3.02 लाख हो जाएगी। देश में अरबपतियों की संख्या में इजाफे की रफ्तार छियासठ प्रतिशत है, जो अमेरिका (41 प्रतिशत), फ्रांस (46 प्रतिशत), जर्मनी (46 प्रतिशत), ब्रिटेन (55 प्रतिशत) और आस्ट्रेलिया (48 प्रतिशत) से भी अधिक है। डब्ल्यूटीओ को लगता है कि भारत के खाद्य सुरक्षा कानून से दुनिया के अनाज बाजार में अस्थिरता आएगी और अंतत: खाद्यान्न की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होगा। सवा अरब की आबादी का पेट भरने के लिए भारत को भारी मात्रा में गेहंू-चावल और अन्य खाद्यान्न की आवश्यकता है। फिलहाल खाद्यान्न के मोर्चे पर देश आत्मनिर्भर है, लेकिन भविष्य में सूखे या बाढ़ से अगर पैदावार घट गई तो भारत को भारी मात्रा में गेहूं-चावल आयात करना पड़ेगा। निश्चय ही तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें आसमान छूने लगेंगी। लेकिन इस लचर तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी भी देश की सरकार की पहली जिम्मेदारी अपनी जनता के प्रति होती है और जनता के भोजन का इंतजाम करना उसका उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्व पर सवाल उठाने का अधिकार किसी देश या अंतरराष्ट्रीय संगठन को नहीं दिया जा सकता। भारत का मानना है कि डब्ल्यूटीओ के अधिकतर नियम खुली अर्थव्यवस्था के पैरोकार विकसित देशों के हित में हैं। अपने बाजार को विस्तार देने के लिए वे दुनिया के गरीब मुल्कों को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। लेकिन कोई भी विकासशील या गरीब देश अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता। भारत ने बलि का बकरा बनने से इनकार कर बहुत अच्छा काम किया है। 

किसानों की कर्ज माफी



किसानों के साथ फिर छल 
  Thu, 07 Mar 2013

2013-14 के आम बजट में कृषि ऋणों में सवा लाख करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर अपनी पीठ थपथपाने वाली केंद्र सरकार को सीएजी (कैग) रिपोर्ट ने जोर का झटका दिया है। संसद में पेश सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक उसने कुल खातों में से 90,576 खातों की जांच-पड़ताल की। इनमें से 20,242 खातों में गड़बड़ी पाई गई। इस हिसाब से 22.34 फीसद मामलों में अनियमितता की बात कही जा सकती है। जांच में पाया गया कि कई ऐसे किसानों की कर्ज माफी हुई जो इसके हकदार नहीं थे, जबकि कई पात्र किसानों को इसका लाभ नहीं मिला और बैंकों ने उनकी दावेदारी खारिज कर दी। कैग को दस्तावेज के साथ छेड़छाड़ और नकली दस्तावेज पेश किए जाने के भी सबूत मिले हैं। कर्ज माफी की उचित निगरानी न कर पाने के लिए कैग ने वित्तीय सेवाओं के विभाग को फटकार लगाई है। किसानों को संस्थागत कर्ज के बोझ से छुटकारा दिलाने के लिए सरकार ने कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना 2008 लागू की थी। इसके तहत 3.69 करोड़ छोटे और 60 लाख अन्य किसानों को 52,516 करोड़ रुपये की कर्ज माफी दी गई थी। इस योजना ने संप्रग को दोबारा सत्ता में लाने में अहम भूमिका निभाई थी। भले ही कैग की ताजा रिपोर्ट ने आम चुनाव की तैयारी में जुटी कांग्रेस को असहज स्थिति में ला दिया है, लेकिन कृषि ऋणों में फर्जीवाड़े का खेल संप्रग के सत्ता में आने के बाद ही शुरू हो गया था, जब कृषि ऋणों में बढ़ोतरी के साथ ब्याज दरों में कटौती की गई। उदाहरण के लिए, 2004 में 86,000 करोड़ रुपये का कृषि ऋण आवंटित किया गया, जो 2011-12 में बढ़कर 5,75,000 करोड़ रुपये हो गया। पिछले आठ वर्षो में कृषि ऋणों में न सिर्फ छह गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई, बल्कि हर साल लक्ष्य की तुलना में ज्यादा कर्ज बांटे गए। 81 फीसद छोटे व सीमांत किसानों के हिस्से बमुश्किल पांच फीसद कर्ज ही आया। बाकी मलाई बड़े किसानों, व्यापारियों व उद्योगपतियों के खाते में गई। 2009-10 में दिल्ली और चंडीगढ़ को जितना कृषि ऋण दिया गया वह उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड को मिले कुल कृषि ऋणों (31,000 करोड़ रुपये) से भी ज्यादा था। यह कृषि ऋणों की परिभाषा में बदलाव लाकर किया गया, ताकि कृषि व सहायक गतिविधियों से जुड़े व्यापारियों, उद्योगपतियों, सरकारी प्रतिष्ठानों आदि को दिए गए कर्ज को भी कृषि ऋण के दायरे में लाया जा सके। इतना ही नहीं, जिन सहकारी संस्थाओं को किसानों का मित्र समझा जाता है, कुल कृषि ऋणों में उनकी हिस्सेदारी 1993-94 में 62 फीसद से घटकर 2009 में 12 फीसद रह गई। इसी प्रकार क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक पुनर्गठन के बाद मुनाफे को प्राथमिकता देने लगे। इसका नतीजा बहुसंख्यक किसानों के साहूकारों-महाजनों और सूक्ष्म ऋण संस्थाओं पर बढ़ती निर्भरता के रूप में सामने आया, जो अंतत: किसानों की आत्महत्या का कारण बना। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 1995 से 2010 के बीच 2,90,470 किसानों ने आत्महत्या की। किसानों को नई फसल के लिए सबसे ज्यादा ऋण की जरूरत अप्रैल-मई में पड़ती है, क्योंकि मानसून से पहले उन्हें बीज से लेकर खाद तक का इंतजाम करना पड़ता है। इसलिए कायदे से वित्त वर्ष के इन दो महीनों में सबसे ज्यादा कृषि ऋण बांटे जाने चाहिए, लेकिन नाबार्ड के आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। इसके मुताबिक अप्रैल 2009 से जनवरी 2010 के बीच कृषि क्षेत्र पर बकाया ऋण तीन लाख करोड़ रुपये था, लेकिन मार्च 2010 तक यह सीधे पांच लाख करोड़ रुपये बढ़कर आठ लाख करोड़ रुपये हो गया। फिर अगले ही महीने यह घटकर वापस तीन लाख करोड़ रुपये रह गया। खुद नाबार्ड के चेयरमैन मानते हैं कि किसानों को खरीफ सीजन के दौरान 50-60 फीसद ऋण लेना चाहिए, लेकिन न तो वितरित ऋण और न ही उनकी अदायगी के साथ फसलों के सामान्य सीजन से कोई वास्ता नजर आता है। रिजर्व बैंक के गर्वनर डी. सुब्बाराव ने स्वीकार किया है कि सब्सिडी वाला कृषि ऋण दूसरे कार्यो में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी का नतीजा है कि घोषित लक्ष्य से ज्यादा ऋण बांटे जाने के बावजूद किसानों की महाजनों पर निर्भरता कम नहीं हो रही है। 2000 से 2010 के बीच कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋणों में 755 फीसद की वृद्धि हुई, लेकिन इस दौरान कृषि की पैदावार महज 18 फीसद बढ़ी। रिजर्व बैंक इसके लिए दो कारणों को जिम्मेदार बताता है। पहला, बैंक ऋण देने में बड़े किसानों को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि उनमें ज्यादा जोखिम नहीं होता। चूंकि समय से ऋण लौटाने वाले किसानों को महज 4 फीसद की दर पर कर्ज मिल जाता है, इसलिए बड़े किसान बैंकों से ऋण लेकर उसे 15-20 फीसद ब्याज दर पर छोटे किसानों को देने लगे हैं। वित्त मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं। उदाहरण के लिए 2007 में वितरित कुल कर्ज में छोटे किसानों की हिस्सेदारी महज 3.77 फीसद थी। 2010-11 में कृषि क्षेत्र को मिलने वाला कर्ज लगभग ढाई गुना बढ़कर 5,09,000 करोड़ रुपये हो गया, लेकिन इसका सिर्फ 5.71 फीसद हिस्सा ही छोटे किसानों के खाते में गया। दूसरा, बैंक एक वित्त वर्ष के आखिरी दो महीनों में कृषि ऋण का लक्ष्य पूरा करने के लिए अपने खातों में हेराफेरी से भी परहेज नहीं करते हैं। स्पष्ट है जब छोटे व सीमांत किसानों को कर्ज मिल ही नहीं रहा तो माफी का सवाल ही कहां से उठता है। ऐसे में कर्ज माफी में ही नहीं कर्ज वितरण में भी घोटाला है, जिसके आगे राष्ट्रमंडल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम और कोलगेट जैसे घोटाले छोटे पड़ जाएंगे। (रमेश दुबे: लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं)

खेतिहर मजदूर



खेतिहर मजदूरों की संख्या घटने का अर्थ 
  Jan 28 2014
वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक देश के 58.2 फीसदी कामगार कृषि एवं संबंधित क्षेत्र से अपनी जीविका चला रहे थे. इस तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि पिछले दो दशकों में भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार कम हुई है.  2012-13 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह आंकड़ा 14.1 प्रतिशत था. दोनों आंकड़ों की तुलना करें, तो यह एहसास होगा कि कृषि अब फायदे का सौदा नहीं है. हालात ऐसे हैं कि ज्यादातर किसान अगर विकल्प मौजूद हों, तो दूसरे रोजगार में जाना चाहते हैं.  बीते कुछ वर्षो से यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा था कि कृषि विकास में आयी जड़ता और गिरती उत्पादकता के मद्देनजर क्या दूसरे क्षेत्रों में कृषि कामगारों के लिए रोजगार के नये अवसरों का सृजन हो रहा है? एसोचैम की एक नयी रिपोर्ट इन सवालों के कुछ जवाब देती है.  रिपोर्ट का दावा है कि 1999-2000 से लेकर 2011-12 तक के बारह वर्षो में कृषि एवं संबंधित क्षेत्रों में लगे श्रमबल में 11 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अच्छी बात यह है कि इन वर्षो में द्वितीयक (विनिर्माण) और तृतीयक (सेवा) क्षेत्र में कामगारों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज की गयी है.  यानी संभवत: कृषि से बाहर हुए लोगों को बड़ी तादाद में विनिर्माण और सेवा आदि क्षेत्रों ने स्थान दिया है. लेकिन ये आंकड़े हर सवाल का जवाब नहीं देते. बड़ा सवाल यह है कि कृषि से बाहर निकलनेवाले कामगारों की स्थिति कैसी है? यह अकसर देखा जाता है कि गरीबी के कारण खेती छोड़ कर शहरों की ओर रुख करनेवाले कामगारों की स्थिति अच्छी नहीं होती. इन्हें बेहद कठिन कार्य परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. शहरों में मलिन बस्तियां ही इन्हें आसरा देती हैं. गांव का जीवन जहां उन्हें एक सामाजिक सुरक्षा देता है, वहीं शहरों में वे पूरी तरह जोखिमग्रस्त होते हैं. यहां यह समझना जरूरी है कि कृषि क्षेत्र से पलायन से ही गांवों की समस्या का स्थायी हल नहीं निकलनेवाला. इसके लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र में पिछले लंबे समय से जारी जड़ता को तोड़ने की जरूरत है. ऐसा कृषि में सरकारी व निजी निवेश को बढ़ावा देकर तथा कृषि को उद्योग के साथ जोड़ कर ही मुमकिन है. फिलहाल इस दिशा में कोई बड़ी पहल नजर नहीं आती.