Monday 27 October 2014

खाद्य पदार्थो के आयात




आयात का औचित्य

Sat, 25 Oct 2014

खाद्य पदार्थो के आयात की नीति को भारतीय किसानों की आजीविका पर संकट के रूप में देख रहे हैं देविंदर शर्मा
एक साल भी नहीं बीता जब आलू की कम कीमतों के कारण किसानों ने इसे सड़कों पर फेंक दिया था। बावजूद इसके सरकार ने पहली बार आलू के आयात की अनुमति दी है। इसके लिए आधिकारिक स्तर यही सफाई दी गई है कि आयात करने से आलू की घरेलू आपूर्ति बढ़ेगी और इसके दाम घट जाएंगे। इन सबके बावजूद तथ्य यही है कि इस वर्ष आलू का उत्पादन तकरीबन सामान्य रहा है और इसमें 2.3 फीसद की मामूली गिरावट ही दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय ने नेफेड को टेंडर निकालने को कहा है, ताकि नवंबर के अंत तक जहाजों की पहुंच सुनिश्चित की जा सके। उम्मीद की जा रही है कि नवंबर के मध्य तक पंजाब से आने वाला आलू बाजारों में पहुंचेगा। घरेलू बाजार में भारतीय आलू के पहुंचने के समय ही आयातित आलू भी आएगा और कोई आश्चर्य नहीं कि किसान एक बार फिर अपने आलू को राजमार्गो पर फेंकने को विवश हों।
यही कारण है कि मैं आलू के आयात की अनुमति देने को आर्थिक रूप से तर्कसंगत नहीं पाता हूं, जबकि हमारे यहां इसके उत्पादन में बहुत मामूली गिरावट दर्ज की गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक खरीफ की फसल अच्छी रही है और नवंबर के मध्य तक आने वाली शीतकालीन फसल के भी सामान्य रहने के आसार हैं। चीन और रूस के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा आलू का उत्पादक है, लेकिन बावजूद इसके अर्थशास्त्रियों की तगड़ी लॉबी के दबाव में खाद्य महंगाई के नियंत्रण में आने पर भी भारतीय बाजार को फलों, सब्जियों और दुग्ध उत्पादों के आयात के लिए खोला जा रहा है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि यूरोपीय संघ चाहता है। इसके लिए भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर द्विपक्षीय वार्ता चल रही है। आलू के चिप्स और पापड़ से जुड़ा भारतीय उद्योग आयात को सस्ता बनाने के लिए आयात शुल्क में 30 फीसद कटौती करने के लिए दबाव बना रहा है। इस जानकारी के बाद कि पाकिस्तान इस वर्ष आलू की आपूर्ति करने की स्थिति में नहीं है मार्च के बाद से शुल्क रहित सस्ता आलू लगातार आयात किया जा रहा है और प्रतिदिन करीब 3000 ट्रक बाघा सीमा को पार कर रहे हैं। भारत में आलू का आयात विशेषकर यूरोप और ऑस्ट्रेलिया से संभावित है। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान कैबिनेट की आर्थिक सहयोग समिति ने 15 नवंबर तक भारत से शुल्क रहित सस्ते आलू के आयात को मंजूरी दी है। आलू एकमात्र ऐसा खाद्य पदार्थ नहीं है जो अस्थायी तौर पर आयात-निर्यात नीति का शिकार हुआ है। हरियाणा के सोनीपत जिले में एक खाद्य प्रसंस्करण इकाई के निरीक्षण के दौरान तब मैं आश्चर्यचकित रह गया जब मुझे बताया गया कि बड़ी मात्रा में चीन से टमाटर की चटनी आयात की जा रही है। यह तब से है जब किसान खरीदार न मिलने के कारण टमाटर को फेंकने को विवश थे।
जब खाद्य महंगाई चरम पर थी तो देश के तमाम हिस्सों हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में किसान टमाटर फेंकने को विवश थे। उस समय टमाटर की कीमत दो रुपये प्रति किलो और कई स्थानों पर तो एक रुपये प्रति किलो होने के कारण किसानों के पास इन्हें पशुओं को खिलाने अथवा फेंकने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था। महज एक माह में 28 अगस्त से 28 सितंबर, 2014 के बीच भारत ने 3,76,009 अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर सूखे टमाटर और इसके अन्य उत्पाद जैसे चटनी, गूदा और गाढ़ा जूस चीन से आयात किया। इसी प्रकार नेपाल से 94,057 तथा नीदरलैंड से 44,160 अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर टमाटर और उसके उत्पादों का आयात किया गया।
बहुतों को नहीं पता होगा कि टोमैटो केचअप, टोमैटो प्यूरी और टोमैटो जूस आदि का चीन, नेपाल, इटली, अमेरिका और नीदरलैंड से आयात किया जाता है। दूसरे शब्दों में अनजाने ही हम दूसरे देशों के किसानों को लाभ पहुंचा रहे हैं जबकि अपने किसानों को मरने के लिए छोड़ने का काम कर रहे हैं। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग इस आयात को न्यायोचित ठहरा सकता है, लेकिन यह समझ से परे है कि विदेशों से आयात किए जा रहे सस्ते उत्पाद के मद्देनजर खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय यह दावा कैसे कर सकता है कि कृषि प्रसंस्करण भारतीय किसानों के लिए लाभप्रद है। पास्ता का ही उदाहरण लें। जब हमारे गोदामों में बड़ी मात्रा में गेहूं सड़ रहा है तब इटली से पास्ता का आयात 39 फीसद प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है। पास्ता गेहूं से ही बनता है, लेकिन समझ नहीं आता कि आयात करने के बजाय इसे देश में ही क्यों नहीं बनाया जाता। भारत में आयातित पास्ता का बाजार 10 वर्षो में बढ़कर 2003-04 में 3.39 अरब रुपये तथा 2013-14 में यह 17.22 अरब रुपये पहुंच गया। भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते के अमल में आने पर पास्ता के आयात शुल्क में 20 फीसद की कटौती होगी। इस प्रकार अतर्कसंगत खाद्य आयात के कारण घरेलू उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। तिलहन की खेती करने वाले लाखों किसानों की कीमत पर भारत खाने योग्य तेल के आयात को प्रोत्साहित कर रहा है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में तमाम छोटे किसान हैं जो तिलहन की नकदी फसल का उत्पादन करते हैं। इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्राजील और अमेरिका के किसानों के आर्थिक लाभ के लिए भारतीय किसानों की आजीविका को छीना जा रहा है।
पिछले तीन दशकों में खाद्य तेलों का आयात कई गुना बढ़ा है। वर्ष 2012 के अंत तक 56,295 करोड़ रुपये मूल्य के 90.1 लाख टन खाद्य तेलों का निर्यात किया गया जो 2006-07 और 2011-12 के बीच की अवधि में 380 गुना वृद्धि को दर्शाता है। पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार प्राय: तिलहन का उत्पादन बढ़ाने पर जोर देते थे ताकि खाद्य तेलों का आयात घट सके, लेकिन यह कभी नहीं बताया गया कि 1994-95 में तिलहन उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका था और हम अपनी जरूरतों का महज तीन फीसद आयात करते थे। 1994-95 के बाद आयात शुल्क में चरणबद्ध तरीके से कटौती की गई, परिणामस्वरूप आयात बढ़ा। इसके आयात शुल्क पर 300 फीसद के प्रावधान को भारत ने शून्य कर दिया। आज हम अपनी घरेलू जरूरतों का 50 फीसद से अधिक का आयात करते हैं। इससे हमने पीली क्रांति को खत्म कर दिया और अर्थशास्त्रियों की लॉबी ने पर्यावरणीय दृष्टि से नुकसानदायक पॉम आयल की खेती को प्रोत्साहन दिया। यह 10 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है। इसके लिए कृषि मंत्रालय ने मिजोरम, त्रिपुरा, असम, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में 10.3 लाख हेक्टेयर भूमि से हरित वनों को कटवा दिया ताकि पाम ऑयल खाद्य तेल हासिल किया जा सके। यह सब समझ से परे है। पहले तिलहन के उत्पादकों को खत्म किया गया, फिर खाद्य तेलों के लिए वनों को काटा गया।
(लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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